कर्तिकेयानुप्रेक्षा | Kartiyanupreksha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४ श्रीमद्‌ राजचन्द्र - 2117 ने उससे कहा-भाई, सोच समझकर भाव कहना। आरब बोला-जो मैं कह रहा हूं, वही बाजार भाव है, आप माल खरीद करें| श्रीमदूजी ने माल ले लिया तथा उसको एक तरफ रख दिया। वे मनमें जानते थे कि इसमें इसको नुकसान है, और हमें फायदा | परन्तु वे किसीकी भूल का लाभ नहीं लेना चाहते थे | आरब धर पहुँचा, बढ़े भाईसे सोदाकी बात की | वह घबराकर बोला तूने यह क्‍या किया | इसमें तो अपने को बहुत नुकसान है। अब क्या था। आरब श्रीमदूजीके पास आया ओर सौदा रद करनेको कहा। व्यापारी नियमानुसार सौदा पका हो चुका था, आरब वापिस लेनेका अधिकारी नहीं था, फिर भी श्रीमद्जीने सोदा रद करके उसके मोती उसे वापस दे दिए । श्रीमद्जीको इस सौदासे हजारोंका फ़ायदा था, तोमी उन्होंने उसकी अन्‍्तरात्माकों दुखित करना अनुचित समझा ओर मोती खरीदा दिए] कितनी निःस्पृहता, छोभबृत्तिका अभाव। आजके व्यापारियोंमें जो सत्यता आ जाय तो सरकार को नित्य नये नये नियम बनानेकी जरूरत ही न रहे और मनुष्य समाज सुखपूर्वक जीवन यापन कर सके । श्रीमदूजी की दृष्टि विशार थी । आज भिन्न भिन्न सप्रदायवारे उनके वचनोका रुचि सहित आदर पूर्वक अभ्यास करते हुए देखे जाते हैं। उन्हें वाडाबन्दी पसन्द नहीं थे। वे कहा करते ये कुगुरुओंने मनुष्योंकी मनुष्यता द्ट री है, विपरोत मार्गेमं झसि उत्पन्न करा दी है, सत्य समझानेकी अपेक्षा वे अपनी मान्यताको ही समझानेका विशेष प्रयत्न करते है। सद्भाग्यसे ही जीवको सह्ढुका योग मिलता है, पहचानना कठिन है ओर उमकी आज्ञानुसार प्रवर्तन तो अत्यन्त कंठिन है । उन्होने धर्मेको म्वभावकी सिद्धि कने वाखा कहा है, धम्मि जो भिन्नता देखी जाती है, उसका कारण दृष्टिकी मिन्नता बतलाया है। इसी बात को वे स्वयं दोहोमिं प्रगट करते ई । भिन्न भिन्न मत देखिए, मेद दृष्टि नो यह । एक तत्वना मूलमां, व्याप्या मानों तेह ॥ तेह तत्त्वरूप वृक्चनो, आत्मधर्म छे मूल । स्वभावनी सिद्धि करे, धर्म तेज अनुकूल ॥ श्रीमदूजीने इस युगको एक अलैकिकद्ृष्टि प्रदान की है वे रूढि या अन्धश्रद्धाके कट्टर विरोधी थे, उन्होंने आडम्बरों में धर्म नहीं माना था। मुमुक्षुओं को मी मतमतान्तर, कदाग्रह और राग द्वेष आदिसे दूर रहनेका उपदेश करते थे | वीतरागताकी ओर ही उनका ध्यान था। पेदीसे अवकाश लेकर वे अमुक समय व्व॑भात, काविठा, उत्तरसंडा, नडियाद, वसो और ईबरके पर्व॑तमें एकान्त बास किया करते थे। मुमुक्षुओंको आत्म-कल्याणका सच्चा मार्ग बताते थे। इनके एक एक पत्रमे कोर अपूर्व रहस्य मरा हुआ है। उन पत्रोंका मर्म समझनेके लिए सन्तसमागम की विशेष आवश्यकता अपेक्षित है। ज्यों ज्यों इनके लेब्रोंका शान्त और एकाग्र चित्तसे मनन किया जाता है, वयो वयो आत्मा क्षण भरके लिए एक अपूर्व आनन्दका अनुभव करता है। ^ श्रीमद्‌ राजचन्द्र ` ग्रन्थके पत्रोंमें ही इनका आन्तरिक जीवन अंकित है । भ्रीमद्‌जीकी भारतम अच्छी प्रसिदि हृदे । मुमुक्षुओने उन्हें अपना आदश माना। बम्बई रहकर भी वे पत्रोंद्रार उनकी शंकाओं का समाधान करते रहते थे। प्रातःसरणीय भील्घुराज स्वामी इनके शिष्योंमें मुख्य थे। श्रीमद्जीद्वारा उपदिष्ट तत्त्तज्ञानका संसारमें प्रबार हो, तथा अनादिकालसे परिभ्रमण करनेवाले जीबॉको पक्षपात रहित मोक्षमागेकी प्राप्ति हो, इस उद्देशको लक्ष्यमें रखकर, स्वामीजीके उपदेशसे शआीमदूजीके उपासकोंने गुजरातमे अगास स्टेशनके पास £ श्रीमद्‌ राजचन्द्र आश्रम ' की स्थापना की, जो आज भी उन्हींकी आशानुसार चल रहा है। इसके सिवाय समात नरोडा, धामण, आहर, भादरण, अवाणिया, काविटा, नार, सीमरडा आदि खलम इनके नामसे आश्रम तथा मन्दिर स्थापित हट है । श्रीमद्‌ राजचन्द्र आश्रम, आगास, के अनुसार ही उनमें प्रषृतति है । अर्थात्‌ श्रीमद्‌जीकी भक्ति ओर तत्वशनकी प्रधानता है ।




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