श्री शान्तिनाथ पुराण (१९७७) ऐसी. ५४३४ | Sri Shantinath Puran (1977) Ac 5434

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Sri Shantinath Puran (1977) Ac 5434 by डॉ॰ पन्नालाल साहित्याचार्य - Dr. Pannalal sahityachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(ই) प्रकिकष्य, शानोफ्योश्न युक्तता, इन' सोलह कारशों से जीव तीर्थंकर, वामगोज>कर्मे বা! গাল करते! हैं । ' शतंनविखुदता भरादिःक। संखिपर स्वरूप इस प्रकार है-- दर्शनविश्ुडता :-- तीन मूढताभ्रौ तथा शङ्कु भादिकं भ्राठ मर्लोसे रहिते संम्यस्वर्ीनं का होना दर्शन विद्युडता है। यहां बीरसेन स्वामी ने निम्नांकित शद्भा उठाते हुए उसका संभाधान किया 2-- क शद्ध :-केवल उस एक ददन विशुद्धतासे ही तीर्थकर नाम क्म का बन्ध कैसे संभव है ? कि दसा मानने से सब सम्यग्धषटि जोवो के तीर्थकर नाम कमे के बन्ध कां प्रसङ्खं भ्राता है । ससाधान ।-- शुद्धनय के अ्रभिप्राय से तीन मूढताशों और आठ मलों से रहित होने पर ही दर्शन विशुद्धता नहीं होती किन्तु पृर्वोक्त गुणों से स्वरूप को प्राप्त कर स्थित सम्यग्दक्षंन का, साधुश्रों के प्रासुक परित्याग में, साधुओ्रों की सघारणा में, साधुभों के वेयावृत्य संयोग में, भरहन्त भक्ति, बहुअ्र,त भक्ति, प्रवचन भक्ति प्रवचन वत्सलत़ा, प्रवचन प्रभावना, औश भ्रभिक्षण ज्ञानोपयोग से युक्तता में प्रवर्तने का नाम दर्शन विशुद्धता है। उस एक हो दर्शन विशुद्धता से जीव तीर्थंकर कर्म को बांधते हैं । २. बिनव संपन्नता :--ज्ञान, दर्शत और चारित्र का विनय से युक्त होना विनय सम्पन्नता है । ३. शीलशब्रतेष्वनतीधार :--भ्रहिसादिक व्रत श्रौर उनके रक्षक साधनों मे श्रतिचार-दोष नहीं लसाना शी ल्रतेष्वनतीचार है $ ४ भ्रावष्यकापरिहीराता :-समता, स्तव, वन्दना, प्रतिकमण, प्रत्याख्यान श्रौर अ्युत्सगें इन छह भावश्यक कामों मे हीनता नहीं करना श्र्थात्‌ इनके कएने मे प्रमाद नहीं करना भावदयका- पष्षिशता है । । ॥- सरबलबप्रतिबोधनता :-- करा भोर लव काल विश्येष के नाम हैं। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, व्रत और शील प्रादि गुरयों को उज्ज्बल करना, दोषों का प्रक्षालत्र करना भ्रथवा उक्त गुणों को अ्रदीक् करता प्रतिबोधनता है । प्रत्येक क्षण भ्रथवा प्रत्येक लव में प्रतिबुद्ध रहना क्षण॒लवभ्रतिबोधनतः है । ६ लब्धिसंवेगसंपन्नता :--सम्यरदर्श न, सम्यस्ज्ञान झ्ोर सम्यकचारित्र में जीव का जो स्रमा- मम होता है उसे लब्धि कहते हैं। उस लब्धि में हुं का होना संवेग है। इस प्रकार के लब्धि संवेग से--सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति विषयक हर्ष से संयुक्त होना लब्धि संवेम संपन्नता है । ' ७, यवास्थामतप :--भपने बल प्रौर वीयं के भ्रनुसार बाह्य तथा भ्न्तरङ्ग तप करना यथा- কানন হু),




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