काव्य दर्पण | Kavya Darpan

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Kavya Darpan by पं रामदहिन मिश्र - Pt. Ramdahin Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भर डे कवि या कोई अन्य कवि दावे के साथ कभी यह नहीं कह सकता है कि मैंने कविता चिखने के पूव दो-चार काव्यो को पढ़ा नही सुना नहीं । पढ़ने-लिखने की बात को वे स्वीकार नहीं कर सकते । यदि ऐसी बात है तो वे यह कैसे कह सकते है कि मेने यह न पढ़ा और न वह पढा । लच्य-ग्न्थों को पढ़ना अकारान्तर से लच्ण- _ अन्थो का ही पढ़ना है। लचुण-अन्थ तो लल््य-प्रन्थों पर ही निभर करते है क्योकि लच्य-अन्थों मे ने ही बते पायी जाती है -जिनपर... लन्नणु-ग्रन्थों में बिचार किया जाता है । दूसरी बात यह भी है कि उस वातावरण का भी प्रभाव पढ़ता है जिसमे _बराबर काव्य-चच्ा होती रहती है। एक प्रकार से इस चचों में शाख्रीय विषयों कौ भी अवतारणा हो जाती है । _ लक्नण-अन्थ तो साहित्य-शिन्ता का ककहरा है जिसके _ _झप्ययन से उसमे सहज प्रवेश हो जाता है और ल्द-यन्यों के सहारे ललण-ग्न्य का ज्ञान प्राचीन _ लिपियो के उद्घार-जेसा कठिन नहीं होता । लक्षण-ग्रत्थ-- साहित्यशास्त्र का झष्ययन--काव्य-बोध का माग म्रशस्त कर देता है । कुछ प्रतिमा- शाली कवियों के कारण काव्यशास्त्र के अध्ययन की झअनावश्यकता सिद्ध नहीं हो सकती। - पक दूसरा थ्राक्षेप एक प्रगतिबादी साहित्यिक लिखते ह---रस-सिद्धान्त श्रादि के विपय में अवश्य मेरा मतभेद है क्योंकि नवीन मनोवैद्ानिक संशोधनो ने प्राचीन रस-सिद्धान्त मैं आमूल अन्तर १ कर दिये हैं । उदाहररार्थ फ्रायड वात्सल्य को भी रति-भाव मानता है या जुगुप्ता या घुणा भी एक प्रकार की रति-भावना ही है । चूँ कि स्स-सिद्धान्त कोई अ्रय्ल वस्तु नहीं है अतः छुंद अलंकार भाषा श्ादि बाह्य रुपों हा ९ ७ के सम्तन इसकी भी नये सिरे से व्याख्या होनी चाहिये । यह केवल सगरेजी-साहित्य पर निमर रहने का ही परिणाम है । रस-सिद्धान्त के सम्बन्ध में सनोवैदानिक अनुसन्घानों ने जो नया दृष्टिकोण उपस्थित कर दिया है वह क्‍या है इसका पूर्ण प्रतिपादन हो जाना चाहिये था । रस-सिद्धान्त में यह एक नयी वात जुड़ जाती या उलका रूप हो बदल जाता । उदाहरण की बात से तो यह मालूम होता है कि उससे कोई रस-सिद्धान्त नहीं बनता । आमूल श्न्तर की बात तो कोई अथ दी नहीं रखती । यह तो लेखनी के साथ बलात्कार हैं | फ़ायड की यह वाई नयी बात नहीं है। वाय्सन विहैवरिज्म रिट%2एए0. हडाएा नामक अन्थ में यह बात लिख चुका है जिसका सारांश २. साहित्यप्तदेश गत १९.४६




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