भारतीय दर्शन का इतिहास भाग ४ | Bhartiya Darshan Ka Itihas Bhag - 4
श्रेणी : इतिहास / History, साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17.46 MB
कुल पष्ठ :
429
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
सुधीरकुमार - Sudhirkumar
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सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त - Surendranath Dasgupta
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भागवत पुराण ७ स्तुप्टि प्रदान करे । लेकिन टीकाकार धर्म के अर्थ एव विपय का इस प्रकार का चिस्तार स्वीकार करने के श्रति भ्रनिच्छुक है। एक प्राचीनतम टीकाकार मेघा-तिथि ६ वी दताब्दी मे कहते है कि वेदिक झ्रादेशो के पालन के रूप में धर्म श्रनादि है केवल वेदो के विद्वान ही धर्म के ज्ञाता कहे जा सकते है तथा यह श्रसम्मव है कि यहाँ घर्म के स्वरूप को ज्ञात करने के श्रत्य साघन भी है । घारमिक कृत्यो के नाम पर जो श्रन्य आचार व्यवहार तथा जीवन के विधि-विधान प्रचलित है उन्हे दुष्चरिन्र मु्खों ने प्रवृत्त किया है मुखं-दु शील-पुरुप-प्रवृत्ति्त वे कुछ काल तक प्रचलित रहते हूँ श्रौर तरपदचातु उनका नाझ हो जाता है। ऐसे धार्मिक आचार प्राय लोम के कारण श्रपनाये जाते है लोमान् मत्र तत्रादिशु भ्रवत्त॑ते । . ज्ञानी श्रौर झीलवान केवल वे ही है जो वेदो के श्रादेकों के ज्ञाता हैं उनको नियम के प्रति आदरमाव से कार्यों मे परिणत करते है श्रौर लोभ श्रथवा द्वेष से प्र रित होकर श्रवेदिक कृत्यों को करने की भूत नहीं करते । श्रौर यद्यपि मनुप्य अपनी इन्द्रिय-तृप्ति के लिये कई कार्यों को करने के लिये मन में लालायित हो सकता है तथापि हृदय का वास्तविक सतोष तो वैदिक कृत्यो के झ्नुप्ठान से ही प्राप्त हो सकता है। श्रपनी इस प्रकार की व्याख्या १ बवेदोइखिलो धर्मं-मूल स्मृत्तिशीले च तदुविदाम् आचारइचेव साधुनाम् श्रात्मनस्तुष्टिएंव च । -वही २ ६ । मेघातिथि कहते हैं कि दारीर पर विभति लगाना मानवी खोपडिया लिये फिरना नगे घूमना या गेरुए वस्त्र पहनना श्रादिं कार्य निकम्मे लोगो द्वारा जी विकोपाजंन के साघऩ के रूप मे अपनाये जाते हैं । -वही श्रध्याय २ १ । हुृदयेन श्रभ्यनुज्ञात वावयाश मे हृदय दाब्द की व्याख्या करते हुए मेधातिथि कहते हैं कि हृदय का झर्थ मन हो सकता है मनस् अ्रतहंदयवर्त्तीति बुद- यादि तत्वोनि । इस मान्यता के श्रनुसार वे यह कहेंगे कि मन का सतोष वैदिक कत्त व्य-पथ के पालन से हो प्राप्त हो सकता है। परन्तु इस शझथे से प्रत्यक्षत झअसन्तुष्ट होकर वे यह सोचते हैं कि हृदय का अझथे वेदो की स्मरण की हुई सामग्री भी हो सकता है हृदय वेद स ह्घोततों भावना-रूपेण हृदय-सहित्तो हृदयमु ।. इसका अर्थ यह हो जाता है कि वेदो का पडित मानो सहजवूति से सद्गुणी कार्यों मे प्रवृत्त होता है क्योकि झपने झाचार-पथ को चुनते समय बह झचेतन रूप मे श्रपने वैदिक श्रध्ययन से निर्देशित होता है । मनुष्य कार्यों में प्रेरित भअपनी निजी प्रवृत्ति से महापुरुषों के उदाहरण से श्रथवा बैदिक झादेशों से हो सकता है किन्तु वह चाहे किसी भी ढग से इस प्रकार प्रेरित हो उसके कार्य घ्म के झनुरूप तभी होगे जबकि वे श्रततोगत्वा वैदिक कत्त व्य-पथ के अनुरूप हो। पड
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