जैनमत का स्वरुप | Jainmat Ka Swaroop

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६७ ) पेन्द्र पूण दोषे २। हृति सौम्य, स्वभावे सौम्याकारवाला होदे ३ । लोकप्रिय, यह छोकपरलोकविरुद्ध काम न करे, ओर दान शीलादि गणों करके संयुक्त होवे ४। अक्रूर, अक्िष्ट अध्य- वसाय मनका मलीन न हवै ९ । भीरु, इह छोक परलोकके अपाय दुः ते रता हया निःरोक अधभैमे न प्रवत ६। अदाठ) निरुछ- गाचारानिष्ठ किसीके साथ ठगी न करे ७ । सदाक्षिण्य, अपना काम छोड़के भी पर काम कर देवे < | लज्जालु, अक्ार्य करनेकी वात छुनके लम्तावान होता है; और अपना अंगीकार किया हुआ धम सदनुष्ठान कदापि नहीं त्याग सकता है ९ । दयाल, दयावान्‌ दुश्खी जन्तुओं की रक्षा करनेका अपिाघुक होता है, क्योंकि धम का मूलही दया है १०। मध्यस्थ, रागद्रेषबिसुक्तबुद्धि पक्षपात राहत ११ । सौम्यरार, किहीको भी उद्बेग करनेवाछा न होने १२ । गुण- रागी, गुणों का पक्षपात करे २३ । सत्कथा, सपक्षयुक्त सत्कथा सदाचार धारणे से शोभनिक प्र के कथन करनेवाले न्तके सहायक कुटम्बीजन रोवे, अथोत्‌ धम्मं करते का पवारकं छक निवेध न करें १४। सुदीर्घदर्शी, अच्छी तरह विचारके परिणाम में जिप्से अच्छा फल होवे, सो कार्य करे २५। विशेषज्ञ, सार असार वस्तु के स्वरूपकों जाने २६ । उद्धालुग, परिणत मतिज्ञान इंद्ध , सुदा चारी पुरुप अनुकार चके १७ । विनीत, गुरुमनका गौरव रे १८ । कृतज्ञ, थोडा भी उपक्रार ईह छोकपरखाकमम्बन्धी किसी पुरुष ने करा होवे, तो तिसके उपकारको भूले नहीं, अयथांद कृतप्न न होगे १०) परहिताथकारी, अन्योके उभयलोक दितकारी कार्य करे २० । रग्धलक्ष, जो कुछ सीखे, श्रवण कर তিক परमार्थ को तत्काल समझे २१) ' तथा पदकर्म नित्य करे । बह यह हैं +-देवपूजा १ | हरे उपास्ति २ | स्वाध्याय ३। सयम '४। तप । और दान 5 । तथा




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