जैनमत का स्वरुप | Jainmat Ka Swaroop
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
795 KB
कुल पष्ठ :
26
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ६७ )
पेन्द्र पूण दोषे २। हृति सौम्य, स्वभावे सौम्याकारवाला
होदे ३ । लोकप्रिय, यह छोकपरलोकविरुद्ध काम न करे, ओर
दान शीलादि गणों करके संयुक्त होवे ४। अक्रूर, अक्िष्ट अध्य-
वसाय मनका मलीन न हवै ९ । भीरु, इह छोक परलोकके अपाय
दुः ते रता हया निःरोक अधभैमे न प्रवत ६। अदाठ) निरुछ-
गाचारानिष्ठ किसीके साथ ठगी न करे ७ । सदाक्षिण्य, अपना काम
छोड़के भी पर काम कर देवे < | लज्जालु, अक्ार्य करनेकी वात
छुनके लम्तावान होता है; और अपना अंगीकार किया हुआ धम
सदनुष्ठान कदापि नहीं त्याग सकता है ९ । दयाल, दयावान् दुश्खी
जन्तुओं की रक्षा करनेका अपिाघुक होता है, क्योंकि धम का
मूलही दया है १०। मध्यस्थ, रागद्रेषबिसुक्तबुद्धि पक्षपात राहत
११ । सौम्यरार, किहीको भी उद्बेग करनेवाछा न होने १२ । गुण-
रागी, गुणों का पक्षपात करे २३ । सत्कथा, सपक्षयुक्त सत्कथा
सदाचार धारणे से शोभनिक प्र के कथन करनेवाले न्तके
सहायक कुटम्बीजन रोवे, अथोत् धम्मं करते का पवारकं छक
निवेध न करें १४। सुदीर्घदर्शी, अच्छी तरह विचारके परिणाम में
जिप्से अच्छा फल होवे, सो कार्य करे २५। विशेषज्ञ, सार असार
वस्तु के स्वरूपकों जाने २६ । उद्धालुग, परिणत मतिज्ञान इंद्ध
, सुदा चारी पुरुप अनुकार चके १७ । विनीत, गुरुमनका गौरव
रे १८ । कृतज्ञ, थोडा भी उपक्रार ईह छोकपरखाकमम्बन्धी
किसी पुरुष ने करा होवे, तो तिसके उपकारको भूले नहीं, अयथांद
कृतप्न न होगे १०) परहिताथकारी, अन्योके उभयलोक दितकारी
कार्य करे २० । रग्धलक्ष, जो कुछ सीखे, श्रवण कर তিক
परमार्थ को तत्काल समझे २१) '
तथा पदकर्म नित्य करे । बह यह हैं +-देवपूजा १ | हरे
उपास्ति २ | स्वाध्याय ३। सयम '४। तप । और दान 5 । तथा
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