प्रवचनरत्नाकर | Pravachanratnakar

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Pravachanratnakar  by मगनलाल जैन - Maganlal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मंगलाचरण | [३ है। किन्तु उन सब में श्रेष्ठ श्र्थंसमय' -अर्थात्‌ जीव पदार्थ है। वह जीव पदार्थ त्रिकाल प्र व, निर्मलानंद, शुद्धस्वरूपी, कर्म-कलंक़ से रहित सब में * सारभूत है। इस सारभूत वस्तु को शुद्धनय बताता है। सम्पूर्ण समयसार का বাহ त्रिकाल शुद्ध चेतन्यघन शुद्धात्मा है- जिसे ज्ञानीजन पर्याय में টা करते हैं। उसको ग्रहण करना-यही सम्पूर्ण समयसार का सार है। मंगल, नाम, निमित्त, प्रयोजन, परिमाण और कर्त्ता - ये छह बातें ग्रंथ के प्रारंभ में आती हैं । उनमें प्रथम मंगल है। जो पवित्रता को उत्पन्न करे और अपवित्रता का नाश करे उसे मंगल कहते हैँ । म्रंथ का नाम समयसार यह नाम है 1 जिन जीवों के लिए बनाया वे निमित्त है । इस ग्रंथ के बनाने का “प्रयोजनः वीतरागदशा प्रगट करना है। इसका 'परिमाण' अर्थात्‌ संख्या ४१५ गाथा है। पंथ के 'कर्त्ता' भगवान कुंदकुंद ग्राचायंदेव हैं । पु हर एक ग्रंथ में उपरोक्त छः बातों में मांगलिक मुख्य होता है, वह मंगलाचरण विघ्नों का नाश करने वाला होता है। (०५५ साधक भाव आरंभ किया, उसे विध्न आता ही नहीं है - ऐसा कहते हैं ।| भौर यह मंगलाचरण नास्तिकता का परिहार करने वाला है। तथा यह शिष्टाचार का परिपालन है अर्थात्‌ मंगलाचरण करना स्वयं ग्रंथ का प्रारंभिक शिष्टाचार है । समयसार कहकर भगवान आत्मा जिनराज हैं, ऐसा कहा । जिनराज पर्याय जिनराजस्वरूप में से होती है। यहाँ तो कहते हैं कि आत्मा का स्वरूप ही जिनराज है । वस्तु के अनेकान्त स्वरूप को बताने वाली वीतराग की वाणी स्याद्वाद है । तथा जिसके अन्तर में मिथ्यात्वादि राग की गाँठ छूट गई है , और बाहर में वस्त्रादि छूट गये हैं ऐसे निम्नेन्थ मुद्राधारी भावलिंगी संत ही गुरु हैं। ऐसे देव-शास्त्र-गुरु को, जो कि आनन्द देने वाले हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। इस ग्रंथ के भापा टीकाकार पं० जयचंदजी कहते हैं कि - इसप्रकार मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करके मैं श्री कुन्दकुन्दाचार्यक्र। गाथावद्ध समयसार ग्रंथ की तथा श्री अमृतचन्द्राचायंक्त आत्मख्याति नाम की संसक्ृत टीका की देशभाषा में वचनिका लिखता हूँ ।.




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