भारतीय ज्ञानपीठ काशी | Bhartiya Gyanpeeth Kashi

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Bhartiya Gyanpeeth Kashi  by अयोध्याप्रसाद गोयलीय - Ayodhyaprasad Goyaliya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सम्पादकीय ५ शि सादिरेगाणि । पुषदिय-घ्ादाव-यानराणं जह० एग०, वे साग७ साद्रियाणि। एवं सन्वदेवेषु श्रष्पप्पणो द्िदिश्च'तरं काद्भ्वं । পা [ सु. प्र., ए. ७५-७६ ] यह पाठ आदर प्रतिमें भी इसी प्रकार उपलब्ध होता है। किन्तु यह होना इस प्रकार चाहिए। देवेसु पचणा ०-घुदुंसशा ०-वारसक-भय-हुगु ०-ओरालिय०-तेजा ०-कम्म-ओोरालियश गो-वरणण० ४ ` श्रु ४ 'आदर-पज्नत-पत्तत-णिसिण-तिस्थपर-पंचंतराइयाणं रस्थि श्रन्तरं । थीणगिद्धितिग-मिच्छत्त- अणंताणु ० ४ जह अर तो०, उक्क० एकत्तीससाग० देसू० । सादासा०-पुरिस्० -चटुणोक० मणुस०-पंचिदिय० समचदु-चजरिस०-मणुसाणु ० -पसत्थवि-तस ० -थिरादिदोण्णियु गल-सु भग-सु स्सर-आ्रादेख-जस ०-अलस ० जह एगस० उक्क० अंतोसु० । इत्यिवे० णत्ु स-पंचसंडाण-पचसं० भ्रत्पसत्थवि-दूभग-दुस्वर-अणादेज्-णीखुब्ा- ' गोदाण' जह ० एयस०, उक्क० एकत्ती साग० देसू । दो आयु ० णिरयभंगो । तिरिक्खगदितिरिक्लगद्िशिरू * उज्जोवाण' जद ० एग०, उछ ० श्रहारससायरोमाणि सादिरेगाणि । एदंदिय-्यादाव-थावराण' जह० एग० उछ ० बेसाग० कादि० ! एवं सन्वदेवे्ु । वरि धष्पप्पणो हिदि श्र तरं कादण्वं । हम प्रस्तुत प्रकरणमें इस प्रकारके जो पाठ उपलब्ध हुए उन्हें हमने पादटिप्पणमें देकर मूलमें संशोधन कर दिया है। इसके लिए देखो पृष्ठ २०६ आदि | ४, प्रतिमें कुछ प्रयोगों दी्घ ईकारकी मारके स्थानमें हृस्व इकारकी मात्रा दिखाई देती है । जान पड़ता है कि प्राचीन कनाडी लिपि हस्व ओर दीषं स्वर्का को मेद॒ नहीं किया जाता रहा है । श्रतः हमने ऐसे स्थलॉपर व्याकरणके नियमानुसार ही हस्व श्रौर दीघं स्वरके रखनेका प्रयत्न किया है | | ५. श्रादशं प्रतिमें 'वरणप्फदिः शब्दके स्थानमें कहीं कहीं वणफदि? ऐसा प्रयोग भी दृष्टिगोचर हुआ है| इसे कहीं कहीं लिपिकारने पीछेते लाल स्याहीसे संशोधित भी किया है | पर कहीं वह अशुद्ध ही रह गया है । हमने सर्वत्र 'वर॒प्फदि! पाठ ही रखा है । . ६, प्राचीन कानडी लिपिमें द और ध यायः एकसे लिखे जते है । इसके कारण आदर्श अतिमें 'उपणिधा! के स्थानमें प्रायः 'उपरिदा? पाठ उपलब्ध हुआ है | यह स्पष्टतः लिपिकारकी असात्रधानी है, इसलिए, हमें जहां 'उपरिदा' पाठ उपलब्ध हुआ वहां उसे 'उपरिधा बना दिया है ] ७. समग्र ग्रन्यमें किसी वाक्य या शब्दकी पूर्ति बिन्दु रखकर की गई है। कहीं कहीं ये बिन्दु जहां धाहिए वहां नहीं भी रले गए हैं और कहीं कहीं उनकी आवश्यकता नहीं होनेपर भी वे रखे गये हैं | यह व्यत्यय आदर्श प्रतिमें सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है | मुद्रित प्रतिके साथ आदर्श प्रतिका मिलान करनेसे तो यह भी बिदित हुआ है कि इस बातका प्रायः बहुत ही कम ध्यान रखा गया है कि मूल प्रतिमे कौन शब्द्‌ या वाक्य कितना निर्दिष्ट है और कितने शब्दांश या वाक्यांशकी पूर्तिके लिए बिन्दुका उपयोग किया गया है| पहले हम मूल ग्रति और आदर्श प्रतिके कुछ पाठान्तरोंकी तालिका दे आए. हैं। उसके देखनेसे इसका स्पष्ट पता लग जाता है | ऐसी अवस्थामें हमें इस बातका स्वतन्त्र रूपसे विचार करना पड़ा है। फलस्वरूप जहां बिन्‍्हुकी हमने अनावश्यकता अनुभव की वहांसे उसे हटा दिया है और जहाँ उसकी आवश्यकता अनु भव की वहां उसकी पूर्वि कर दी है । हे ८. आदर्शप्रतिमं श्रनेक स्थलॉपर सम्यक्त्व मागणाके प्रसङ्गते खदगसं०, उपसमध॑° सासणसं° वेदगसं ० ऐसा पाठ उपलब्ध हुआ हे! यहां श्वः के ऊपर श्रनुस्वार्की अवश्यकता नहीं है) प्राचीन कनाडी लिपिमें अनुस्थार ओर वर्णद्वित्व बोधक संकेत एक बिन्दु ही होता है। सम्भव है कि इसी कारेणसे यह भ्रम हुआ है, अतएव ऐसे स्थानोंपर हमने 'खइगस० उवसमस०, सासणसं०, वेदगस०? ऐसा संशोधित पाठ रखा है । कहीं कहीं 'जंहि! के स्थानमें 'नम्हि' और 'तंहि! के स्थानमें 'तग्हि! इसी नियमके अनुसार किया ঘা ই। . নু ९. मूलमें 'कायजोगि? पाठके स्थानमें 'काजोगि! पाठ बहुलतासे उपलब्ध होता है। दित प्रति (प्रकृतिबन्ध) में भी यह व्यत्यय देखा जाता है। मूलमे इस प्रकारके पाठके लिपिबद्ध होनेका कारण क्या है इसकी ह




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