पतझर और वसंत | Pathjhar Aur Vasant

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Pathjhar Aur Vasant by विजयमुनि - Vijaymuni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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~+ मेत्री भावना ६ ~ ^ ५ ~~~ ^-^ ७४ ~~ ~~ ~~~ ~ ~~ ~~ ˆ~ ~~--~~ ~~ + ~~ ~~~ ~ ~~~ जहाँ श्रभय है-- व्हा मेव्री-माव दहै 1 प्रेम, विवास, সমন সীল मैत्री - यह सव मेत्री-माव का विकास-क्रम है । गत्रुता, जीवन काएक तीव्र नल्यहै। शत्तता काजन्म स्वार्थ से होता है। गन्रुता, जीवन का कलक है। जब तक मन मे शत्रु-भावना रहेगी, मनुष्य कभी भी भ्रपना विकास नही कर केगा । जन्नता, आत्मा का स्वभाव नही है, आत्मा का स्वभाव >मेन्नी । जहाँ प्रकाश है, वहाँ अन्धकार नही रह सकता। इसी प्रकार जहाँ मेत्री है, वहाँ जन्रुता नही रह सकती । जिस मन मे राम का वास है, वहाँ रावण का निवास कंसे होमा? मत्री, श्रहिसा श्रौर प्रेम-ये सव मनुष्य-जीवनं के दिव्य-भाव हैं । और वर, विरोध तथा शत्रुता-ये सव मनुष्य-जीवन कै आसुरी-भाव है। आसुरी-भाव का निराकरण ही देवी-भाव क समादर होगा। स्वार्थ को छोडकर पराथ की श्रोर वढ़ना-- मेत्री है। मेत्री, जीवन का मघुर वरदान है और शत्रुता, जीवन का भयकर अभिशाप है। सामाजिक जीवन मे जो वात मेत्री, सदभावना, प्रेम भर अहिसा से सहज मे की जा सकती है--वह बेर, विरोध और शत्रुता से नही। व्यक्ति को बदलने के दो मार्ग हैं-विरोध शऔर अनुरोध । विरोध, वेर का मार्ग है और अनुरोध, अ्रहिसा कामागह। मत्री, कल्याण का रास्ताहैग्रौर शत्रता, विनाश का पथ है। जब प्राणि-मात्र मे हम प्रेम-भाव पैदा कर सकेंगे, तभी हम मंत्री-भाव की आरावना कर सकेंगे। मेत्नी-भाव ही मनुष्यता का सार-तत्तव है ।




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