खोज में उपलब्ध हस्तलिखित हिंदी ग्रंथों का चौदहवां त्रैवार्षिक विवरण | Khoj Men Upalabdha Hastalikhit Hindi Granthon Ka Chaudahavan Traivarsika Vivarana

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Khoj Men Upalabdha Hastalikhit Hindi Granthon Ka Chaudahavan Traivarsika Vivarana by डॉ पीताम्बरदत्त बडध्वाल - Peetambardatt Bardhwal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ ) सुंशी सदासुखछाल “नियाज” हैं। उनका जन्म-संवत्‌ $८०३ वि० माना गया है। प्रस्तुत शोध में मिला यह अंथ उक्त मुंशीजी के जन्मकाल से पाँच वर्ष पूर्व की रचना है । इससे यह ज्ञात होता है कि गद्य का जो प्रारंभकारकू अब तक कल्पित किया जाता है उससे वहत पूवं ही हिंदी गद्य विकसित होकर अपना परिमार्जित रूप ग्रहण कर चुका था । इंशाअछा के गद्य की भाँति उसमें फारसीपन नहीं है। “समझाय के कहौ,” “जान- नेहारे हो, “पैसे ही,” “वह जो करता है सो बंधन का कारण नहीं होता” आदि पुराने प्रयोगों से उनकी भाषा मुंशी सदासुखजी की माषा से समता रखती है | उन्हीं की भाँति शद्ध तत्सम संस्कृत शब्दो का इन्होंने भी स्थर स्थर पर प्रयोग किया है । इनकी रचना में “बाद” आदि कुछ ही विदेशी शब्द मिलते हैँ जो घुरु-मिरुकर हिंदी की निजी संपत्ति हो गए हैं । इस गद्य का महत्त्व यह है कि यह मुंशी सद/सुखलाल के गय से कम से कम आधी शताब्दी पहले का तो अवश्य है | मुशीजी के “भागवत” के अनुवाद का तो समय नहीं ज्ञात है किंतु उनके बनाए “मुंतखबुत्तवारीख” का रचनाकार सं० १८७५ थि० विदित है ओर रामप्रसाद 'निरंजनी' का “योगवासिष्ठ” भाषा इससे सत्तर वर्ष पहले का है। इंशाअछा की “रानी केतकी की कहानी” और लब्लजीलाल के “प्रेमसागर” ( कगभग १८६० वि० ) से वह रूगभग ६२ वर्ष पहले का है । ४०--रूपराम सनाठ्य और उनका अंथ “कवित्तसंग्रह'”' खोज में पहले पहल प्राश म आ रहे हैं । यह आगरा जिले की तहसील बाह में कचौराघाट के निवासी थे, जहां जमुना आगरे से इटावा के जिले को अछग करती है। ग्रंथ में रचनाफालू तथा लिपिकराल नहीं हैं; परंतु अनुसंधान से पता चलता है कि उनको हुए ५०-६० वर्ष से अधिक नहीं हुए । कहते हैं कि उन्हें साहित्य और संगीत दोनों का पर्योप्त ज्ञान था। वे अच्छे वक्ता तथा कथावाचक थे । ४-- हरीराम” का “म्गयाविहार नामक भथ इस खोज में प्राप्त हुआ है । पिछली रिपोर्ट एवं मिश्रबंशुविनोद में कई हरीरामों के नाम आए हैं । उन सबसे यह 'हरी- राम भिन्न दै । इस ग्रंथ में महेंद्रसिंहजी महाराज-भदावर की म्गया का वर्णन है । ग्रंथ संचत १९१५ वि० तदनुसार १८५८ ई० का बना और उसी सन्‌ का लिखा हुआ है । ग्रंथकार का कथन हैः- “सुनि सुनि जस रसदान प्रति जोजन प्रगट पचीस । चलि ग्रहते हरिराम जू आए जहाँ नृप ईंस | नवगाये मेँ नवर चप श्रीमहेन्द हरि नाम | द्रसि परम आर्द्‌ भयो मदनरूप अभिराम ॥'' भे नवगाये ( नौगवाँ ) आगरा जिखा की वाह तहसीर मे अवस्थित है ओर भदाचर राज्य की वर्तमान राजधानी है | उस समय वहाँ महेंन्द्रसिह गद्दी पर थे | उनके दान की कवि ने काफी प्रशंसा की है।--




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