वड्डमाणचरिउ | Vaddhaman-Cariu

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Vaddhaman-Cariu by राजाराम जैन - Rajaram Jain

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प्राकृत- पाली- अपभ्रंश- संस्कृत के प्रतिष्ठित विद्वान प्रोफ़ेसर राजाराम जैन अमूल्य और दुर्लभ पांडुलिपियों में निहित गौरवशाली प्राचीन भारतीय साहित्य को पुनर्जीवित और परिभाषित करने में सहायक रहे हैं। उन्होंने प्राचीन भारतीय साहित्य के पुराने गौरव को पुनः प्राप्त करने, शोध करने, संपादित करने, अनुवाद करने और प्रकाशित करने के लिए लगातार पांच दशकों से अधिक समय बिताया। उन्होंने कई शोध पत्रिकाओं के संपादन / अनुवाद का उल्लेख करने के लिए 35 पुस्तकें और अपभ्रंश, प्राकृत, शौरसेनी और जैनशास्त्र पर 250 से अधिक शोध लेख प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त किया है। साहित्य, आयुर्वेद, चिकित्सा, इतिहास, धर्मशास्त्र, अर

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना २ ५ प्रति की विशेषताएँ १ कटी-कही पदके आदिमे “णके स्थानम 'नका प्रयोग किया गया है । २ भूरे चट इए पाठाशोके लिए हस-पद देकर ऊपर या नीचेकौ मोरसे गिनकर पक्ति-सस्या तथा जोड ( +) के चिह्वके साय उसे उपरी या निचे हासि भकित कर दिया गया हं 1 ই জহুর হাঁ যা मात्रामोको सफेद रगसे मिटाया गया ह । . ४ 'बख' की लिखाबट 'रक' ( पत्र-स २६ बव, पव्ति ७) एव गकरो श्रं (पन्त ४८, प, ५ ) के समान लिखा है। ५ अनावश्यक रूपसे अनुस्वारके प्रयोगकी वहुलता है । ६ इस भ्रति की एक विशेपता यह है (जो कि प्रतिलिपिकारकी गलतीसे ही सम्भावित है) कि इसमें 'विसाल' के लिए 'विशाल' ( पत्र सं, ६३ ब, प १ ९1४६) एव पुष्क के किए पुष्प्‌ ( पत्र-र ६२ व, प, ८, ९५६ ) के प्रयोग मिलते है 1 धयुष्प' वाला रूप 7 प्रतिमे भी उपलन् है । इस प्रकार उपर्युक्त तीनो प्रतियाँ न्यूनातिन्यून अन्तर छोडकर प्राय समान ही हं । तीनो प्रतियोमें अन्तिम पृष्ठ उपलब्ध न होनेंसे उनके प्रतििपिकाल एव स्थान आदिका पता नही चलता, फिर भी उनकी प्रतिलिपिको देखक्र ऐसा विद्धित होता है कि वे ४० ०-५०० वर्ष प्राचीन अवश्य हैँ । उनकी प्राय समरूपता देखकर यही विदित होता है कि उक्त तीनो प्रतियोमें-से कोई एक प्रति अवश्िष्ट प्रतियोके प्रतिछेखनके लिए आधार-प्रति रही हैं। मेरा अनुमान है कि ? प्रति सबसे बादमें तैयार की गयी होगी क्योकि उस ( के पत्न स ४६व,प ८, ५/१६1१२ ) में 'कज्जिसमण्णु , ...अण्णु” के लिए 'कज्जी समण्णु अण्णु' पाठ मिलता हैं, जबकि प्रति (के पत्र-स ४० व, प ८-९, ५।१६।१२) मं वही पाठ “कज्जो समण्णु...अण्णु' अकित है । वस्तुत ९५ प्रतिका पाठ हो शुद्ध है। 2. प्रतिका प्रतिलिपिकार इस चुटित पाठ तथा उसके कारण होनेवाले छन्द-दोषको नही समञ्च सका 1 इसी कारण वह्‌ प्रति अन्य प्रतियोकी अपेक्षा प र्ती प्रतीत होती है । अन्थकार-परिचेय, नाम एवं काल-निर्णय वद्ुमाणचरिउमें उसके कर्ता विबुध श्रौधरका सर्वागीण जीवन-परिचय जाननेके लिए पर्याप्त उन्दर्भ-सामग्री उपलब्ध नही है। कविने अपनी उक्त रचनाकी आद्य एव अन्त्य प्रशस्तिमें मात्र इतनी ही মুলা दी हैँ कि वह गोल्ह ( पिता ) एवं वोल्हा ( माता ) का पुत्र है तथा उसने वोदाउव निवासी जायस कुलोत्पन्न नरवर एवं सोमा अथवा सुमति के पुत्र तथा वीवा ( नामकी पत्नी ) के पति नेमिचन्द्रकी प्रेरणासे असुहर ग्रामं मे बैठकर “वड्डमाणचरिउ' को वि स ११९० की ज्येष्ठ मासकी शुक्ला पचमी सूर्मवारके दिन रचना की हैं । इस रचतामें उसने अपनी पूर्ववर्ती अन्य दो रचनाओके भी उल्लेख किये है, जिनके नाम हें---चदप्पहचरिड एवं सतिजिणेसरचरिउ । किन्तु थे दोनों ही रचनाएँ अद्यावधि अनुपलब्ध है। हो सकता है कि उनकी भ्रशस्तियोमें कविका जीवन-परिचय विद्येष रूपसे उल्लिखित हुआ हो ? किन्तु यह तो इन रचनाओको प्राप्तिके अनन्तर ही ज्ञात हो सकेगा । प्रस्तुत तिमे कविते समकालीन राजाभो अथवा अन्य किसी ऐसी घटताका भी उल्लेख नही किया कि जिससे उसके समग्र जीवनपर कुछ विद्येष प्रकाश पड सके । १ नड्ढमाण, १।३।२। १ वही, १०।४१।४॥ २ बही, १०४१।५1 ई वही, १०।४१।७-६। ३-४ चही, १।२।६-४, ११६१-३, १०।४११-६। ७ वही, १।२।६।




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