मनोविकार विज्ञान और धर्म में व्याप्त संकट | Manovikar Vigyan Aur Dharma Main Vyapta Sankat
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
244
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about ओ. होबार्ट मोवरर - O. Hobart Mowrer
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)6 मनोविकारविज्ञान और घर्म मे व्याप्त सकट
मनोविज्ञान की भुलभूत निष्ठा,” बिल्कुल प्रसगत या पूर्णत निष्फल रही है।
सीखने के क्षेत्र मे इस निष्ठा से प्रेरित जो अनुसन्धान और सैद्धान्तिक साहित्य
निकला है उसकी समीक्षा करने मे वतमान लेखक (मौरर, 19608} ने गत कई
मास बिताए है, इसके परिणाम निस्सदेह प्रमावदील रहे है । लेकिन प्रदन यह
है कि क्या यह् निष्ठा इतनी व्यापक, इतनी भ्न्तर््रही भौर दूरगामी है जितना
इसे होना चाहिए ।
“कत्यवादी मनोविज्ञान जीव की प्रयोगात्मक क्रियाओ का भ्रष्ययन
बन जाता है। जीव के सम्बन्ध मे जितने सिद्धान्त গন तक प्रस्तुत हुए हैं
उन सब मे से जिस प्रकार डाविन का सिद्धान्त सवसे अधिक प्रयोगात्मक
था, उसी प्रकार क्ृत्यवादी मनोविज्ञान भी आद्योपान्त पयोगात्मक था
(बोरिंग, 1950, पृ० 277)1
इस प्रकार इस समस्या का मूल प्रदन यह है क्या यह वास्तव मे सत्य है
कि मन की रचना शरोर की सेवा के लिए हुई है (शायद, “प्रयोगात्मकता” का
यहाँ यही भथं है) ? भ्रथवा, इनमे किसी न किसी रूप मे भन्योन्याधि त सम्बन्ध
है, जिसमे शरीर को मन का आज्ञाकारी और कभी-कभी पूर्ण ताबेदार बनना
होता है । वैज्ञानिक इस प्रदन को उठाने मे, इसलिए कतराते हैं कि इसमे स्पष्ट
ही पुराशपन्थ की गन्ध आती है। घमं ने सदा ही इस बात पर बल दिया है कि
झात्मा शरीर से अ्रधिक महत्वपूर्ण है और “मास” को आत्मा का तावेदार होना
चाहिए । श्रौर “प्राचीन मनोविज्ञान” जिसके विरुद्ध कृत्यवाद भ्रौर “्यवहारवाद
ने विप्रोह के कण्डे षडे किए हए थे (जो काम भ्राघारहीन नही था), की
मान्यताये भी धमं-शास्त्र की मान्यताओं के समान ही थी! बोरिगि हमारा
ध्यान “डेकार्तेपर सत्रहवी सदी के घमे-शास्त्र के प्रभाव, जो भाषा से प्रमाणित
होता है,” की ओर भाकषित करते हैं । वे इस बात पर ध्यान देते हैं कि फ्रासीसी
भाषा से, / ४६४४ का अर्थ सन या आत्मा लगाया जाता है, भौर यही बात्त অমল
शब्द 5८2 के बारे से भी सत्य है। क्योकि कोई पशुओं में “आत्मा” नही
हा इसलिए उन्हे मन (भर चेतनत्ता) से वचित करने की प्रवृत्ति देखी
गई है।
“इसके विपरीत डाविन का सिद्धान्त मनुप्य श्रौर पशुओं के बीच
निरन्तरता, मानसिक तथा शारीरिक, [प्रत्येक हालत में निरन्तरता, पर
बल देता है, क्योकि निरन्तर परिवर्तन के फलस्वरूप मनुष्य पशुओ से
ही निकला हुआ माना जाता है (वोरिय, 1950, पृ० 284-285) ।”
User Reviews
No Reviews | Add Yours...