दीर्घायु | Dirghayu

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Dirghayu by गणेशदत्त शर्मा गौड़ - Ganeshdatt Sharma Gaur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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९ টি দাত ক ১ $ কহ करना एक प्रफारसे आपुनी दी कमजोरी प्रकट करना है। इस तरहकी निधेलता जबतक रहेगी तवतक मजुष्यमें सच्ची मान- चताका होना विलकुल असम्धव है। यहाँपर एक प्रश्न यह उठ सकता है कि क्या परमात्मासे भी नहीं डण्ना चाहिये १” इसका उतर यही है कि परमात्मा कोई भयका पदार्थ नहीं है, उससे उरनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। घद्द तो न्यायाधीश है-जो जैसा करेगा, उसे पैसा ही फल देगा। घहाँ न तो रिंझा- यत होगी और न अधिक दण्ड हो मिलेगा इसलिये परमात्मासे भय फरनेकी कुछ भी जरूरत नहीं हैं। वेद कद्दता है-- “उ० स नो वन्धुजेनिता स विधाता धामानिवेद्‌ भुवनानि- विश्वा 1” यजु० अ० ३२ मे० १० (खः) वह परमात्मा (नः ) हमारा (वंघुः) भाई (जनिता ) पिता (सः) बह ( विधाता) इच्छित कार्योका पूणं करनेवाला ३। ड विहष्ठो नाम ते पिता मदावति नामते माता! स हि न त्वमसि यस्त्वमात्मानमावयः 1” अथव ६ 1१६२ हे परमात्मन्‌ ( ते ) तेरा ( बिद ) कंपानेवाखा ( पिता) पिता ( नाम ) नाम है ओर (ते ) तेरा ( माता ) मा (मदवती ) प्रसन्नता देनेवाला (नाम ) नाम हैं. (सः) वह (हि) ही ( त्वम्‌) तू ( असि ) है ( यः) जिस (त्वम्‌) तूने (आत्मानम) हमारे आत्माकी ( आवयः ) रक्षा की हैं भस नः पिता जनिता स उत वन्धुः |» अथ २।९।३




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