सोनगढ़ सिद्धांत | Songarh Siddhant
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
114
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्री कृष्णा जैन - shree krishna jen
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)4
एका जीवदयैकत्र परत्र सकला क्रिया
अर्थ-अकेली जीवदया एक ओर है और जेष सवं क्रियाए
दूसरी ओर हे। अर्थात् श्रन्य सब क्रियाओं से जीवदया श्रेष्ठ
है। अन्य सब क्रियाओं का फल खेती की तरह है और जीव
दया का फल चितामणि की तरह है।
धर्मो नाम कृपामूल सा तु जीवानुकम्पत्म् ।
अश रण्यशरण्यत्वमतो धामिक-लक्षणम् ॥५-३५॥
(क्षत्र चूडामणि)
गथ--धर्म का मूल दया है और वह दया जीवो की अनु-
कम्पारूप ह । श्रत भ्ररक्षित प्राणियों की रक्षा करना धर्मात्मा
का लक्षण हैं ।
दयादमत्यागसमाधिसन्तते पथि प्रयाहि प्रगुण प्रयत्नवान् ।
नयत्यवश्य वचसामगोचर विकल्पदूर परम किमप्यसौ ॥१०७॥
(्रात्मानु शासन)
ग्रथ--हे भव्य ) तु प्रयत्न करके सरलभाव से दया, इन्द्रिय
दमन, दान और ध्यान की परम्परा के मार्ग मे प्रवृत्त हो। वह
मार्ग निश्चय से किसी ऐसे उत्कृष्ट पद (मोक्ष) को प्राप्त
कराता हूँ जो वचन से अनिवेचनीय हैँ रौर समस्त चिकत्पो से
रहित है ।
+ धम्मो वत्थु-सहावो खमादि-भावों य दस-विहो धम्मो ।
रयणत्तय च धम्मो जीवार्ण रक्खण धम्मो ॥४७८॥ .-
(स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा )
थ--वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं। दस प्रकार के
क्षमादि भावो को धर्म कहते है। रत्तत्रय को धर्म कहते है।
আলী को रक्षा करने फो धर्म कहते है ।
'करुणाए जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो ४
(घवल पु० १३ पृ० ३६२)
User Reviews
No Reviews | Add Yours...