अनेकान्त | Anekant

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Anekant by आचार्य जुगल किशोर जैन 'मुख़्तार' - Acharya Jugal Kishor Jain 'Mukhtar'

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जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।

पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अनेकान्त/13 है अतः साध्य सिद्धि के पूर्व साधनों का ठुकराना या उनसे घृणा करना भ्रम जनित अज्ञानता ही कह लायेगी। जैन दर्शन के सुप्रसिद्ध व्याख्याता तार्किकचक्र चूडामणि आचार्य प्रवर स्वामी समंतमद्र जिनस्तवन करते हुए लिखते हैं- न पूजयार्थस्त्वायि वीतरागे न निंदया नाथ ! विवांत वैरे। तथापि ते पुण्य गुणस्मृतिर्न: पुनाति चित्त दुरिताञ्जनेभ्यः।। -वृहत्स्वयंभूस्तोत्र अर्थात्‌ हे भगवान्‌ ! आपको न तो हमारी पूजा से कोई प्रयोजन ই :- क्योकि आप वीतराग हैं और न निंदा से ही कोई द्वेष है क्योंकि आपने वैर भाव को समूल नष्ट कर दिया है | फिर भी चूँकि आपके पुण्य गुणों का स्मरण हमारे मन के विकारों को नष्ट कर हृदय में वीतरागता का संचार करता है अतः आपकी पूजा हमें अभीष्ट फलदायक होने से विधेय होकर आत्म विशुद्धि का निर्मल स्रोत भी स्वयं सिद्ध हो जाता है| यदि भगवत्‌भक्ति संसार परिभ्रमण ओर केवल बंध का ही कारण होती तो इसे तीर्थकर अपनी मुनि दशा मे स्वयं षडावश्यकों के रूप में प्रतिदिन सिद्ध वंदना न करते और उनकी स्तुति भी न करते। तथा न आश्रावकों व अन्य श्रमणों को भी अनिवार्य रूप मे प्रतिदिन सम्पन्न करने का विधान करते । यह अवश्य है कि मुनिराज कं शुद्धोपयोगी बन जाने पर उनके पुण्य-पापमयी शुभ व अशुभ उपयोग ओर क्रिया स्वयं छूट जाती है; किन्तु आज जबकि शुद्धोपयोग तो दूर शुभोपयोग में रहना भी प्रायः कठिन हो रहा है-शुभोपयोग एवं पुण्यक्रियाओं को पापलिप्तं संसारी जनों के लिए हेय बताकर उनसे दूर रहने का उपदेश देना एक प्रकार सर्व साधारणजनों को धर्म मार्ग से वंचित और दूर कर देना है जो आत्म वंचना के सिवाय परवंचना भी है। किसे कब क्या हेय और उपादेय है? वह व्यक्ति की योग्यता एवं द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति पर निर्भर है- जो व्यक्ति पुण्य के द्वारा साधक दशा मे शुद्धोपयोगी बनने का पात्र बनता हे उससे प्रारंभ में ही घृणा करा देना और हेय बताकर पापों के समान उससे दूर रहने की शिक्षा लाभदायक नहीं हो सकती। जैसे समुद्र में डूबने वाले व्यक्ति को नौका उपादेय और उसमें बैठकर किनारे लग जाने पर वह अनावश्यक होने से छूट जाती है उसी प्रकार शुभोपयोगी धर्म क्रियाएँ नौका के समान होकर शुद्धोपयोगी बन जाने पर अनुपयोगी हो जाने से छूट जाती हैं। यदि डूबने वाला किनारे लग जाने के पूर्व ही नौका को हेय जान उसका सहारा न लेगा तो किनारे




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