बात बोलोगी | Baat Bologi

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Baat Bologi by शमशेर बहादुर सिंह - Shamsher Bhahdur Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दुःख नहीं मिटा दुःख नहीं मिटा । घिरा और घुमड़ा आकाश । फिर बरसा दिन भर। खुला नहीं। बहीं हवाएँ भी बुंदियाँ भर-भर। झोंके भी हृदय उड़ाते हुए चले । पर खुला नहीं राग । सफल नही हुआ, बाह, सन का अनुवाद ! भूमे वन के वन हर-हर कर । नद बहे । घन घ्रे । लहरे मन-उद्यान । सीझ गये पत्थर । --फैंठिन किन्तु कवि-उर-प्रस्तर था जो उष्ण रहा तपता । कौन वह सावन की घड़ी होगी,--जब मन के झूलों पर फिर बरखा की पेंगें मल्हार गायेंगी'*“मन के झूलों पर फिर बरखा की पेंगें मल्हार ? ৮৫ >< आह्‌ आज प्लावन मेँ सखा यह्‌ तृण ! तुझे चुकाना है, को मेघराज, १५




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