पंचस्तोत्रसंग्रह | Panchstotra Sangrah

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Panchstotra Sangrah by पंडित पन्नलाल जैन - Pandit Pannalal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ससतागरस्तोष । [रे पादपीठ-पेर रखनेकी चौकी जिनकी ऐसे हे जिनेन्द्र ! (विगतत्रप) लज्ञा-रहित (अहम) में (बुद्धया विना अपि ) वुद्धिके बिना भी ( स्तोतुम ) स्तुति करनेके लिये ( समुद्यतमति “भवामि' ) तत्पर होरहा हूं ( बाठम्‌ ) बालक-मूखको ( विह्ाय ) छोड़कर ( अन्य: ) दूसरा (कः जनः ) कौन मनुष्य ( जलसंस्थितमू ) जकमें प्रतिबिम्बित ( इन्दुबिम्बम्‌ ) चन्द्रमण्डलको ( सहसा ) विना विचारे ( ग्रदीतुम्‌) पकड़नेकी ( इच्छति ) इच्छा करता है ? अर्थात्‌ कोई भी नहीं । भावाथ-हे जिनेन्द्र ! जिसतरह ठज्ञा रहित बाठक जलमें प्रतिबिसम्बित चन्द्रमाको पकड़ना चाहता है, उसीतरह लजारहित में बुद्धिकि बिना भी आपकी स्तुति करना चाहता हूं ॥ ३ ॥ वक्‍्तुं गुणान्‌ गुणसमुद्र ! शशाडकान्ता- न्कस्ते समः सुरगुरुप्रतिमो5पि बुद्धया। कल्पान्तकालपवनोद्धतनक्रचक॑ं को वा तरीतुमलमम्बुनिर्घि भुजाभ्याम ॥४॥ अन्वयाथ-(गुणसमुद्र ! ) हे गुणोंके समुद्र ! (बुद्धघा) बुद्धिके द्वारा ( सुरगुरुप्रतिमः अपि ) ब्रहस्पतिके सहझा भी ( कः ) कौन पुरुष ( ते ) आपके ( दाशाकुकान्तान्‌ ) चन्द्रमाके समान सुन्दर ( गुणान ) गुणोंको ( वक्तुम्‌ ) कहनेके लिये ( क्षम: ) समय हैं ? अर्थात्‌ कोई नहीं (वा ) अथवा (कत्पान्तकाठपबनोद्धतनक्रचक्रम्‌ ) प्रलयकाछकी वायुके द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छोंका समूदद जिसमें ऐस ( अम्बुनिधिम्‌ ) समुद्रको ( मुजाभ्याम्‌ ) भुजाओंके द्वारा (तरीतुम्‌ ) तैरनेके लिये ( कः अढमू ) कौन समय है ? अर्थात्‌ कोई नहीं । भावाध-हे नाथ ! जिसतरदद॒ तीक्ष्ण वायुसे खहदराते और हिंसक जठजन्तुओंसे भरेहुए समुद्रको कोई भुजाओंसे




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