सरकार के अंग | Sarkar Ke Ang

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Sarkar Ke Ang by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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10. विधायिका में स्थान दे दिया जाए, तो उनकी बहुमूल्य राय से सभी लाभान्वित होगे। विशिष्ट ज्ञान के भंडार के रूप मे द्वित्तीय सदन के सुजन के लिए अनेकानेक तर्क दिए जा सकते है । उच्च सदन का कार्यकाल निम्न सदन के कार्यकाल से अधिक लंबा रहता है ओर उसमें अन्‌ भवी व्यक्ति रहने चाहिए, द्विसदनीय पद्धति के, इस तरह, बहूविज्ञापित लाभों के बारे में एक सदनीय पद्धति के समर्थकों ने गंभीर प्रश्नचिहन खड़े कर दिए हैं। प्रायः यह कहा जाता है कि ट्विसदनीय विधायिका के दोनों सदनों में मतभेद बना रहता है। अगर द्वित्तीय सदन में कार्यपालिका द्वारा मनोनीत सदस्य रखे जाते हैं तो उन्हें जनता द्वारा चुने हुए लोकप्रिय सदन को मिले अधिकार प्राप्त नहीं हो पाएँगे। अगर अप्रत्यक्ष ढंग से चुनाव द्वारा उसका गठन होता है, तो ऐसा करके घूसखोरी और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा। द्विसदनीय पद्धात के विरुद्ध मख्य तर्क यही है कि दो सदन होने पर राज्य की एकता के सिद्धांत को आधात पहँचता है। पनरीक्षण करने वाले निकाय के रूप में द्वित्तीय सदन की उपयोगिता जैसे तर्क का भी खप्डनकिया जाता है। प्रथम सदन जनता के प्रति उत्तरदायी और निर्वाचित प्रतिनिधियों को लेकर गठित किया जाता है। अतः यह बात बिल्कल स्पष्ट है कि ये निर्वाचित प्रतिनिधि द्वितीय सदन द्वारा दिए विपरीत मत को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होगे। विशेषतया संसदीय प्रणाली के अंतर्गत ऐसा होता है क्योकि विधायिका जिम्मेदार मंत्रिमण्डल तथा प्रशासनिक विशेषज्ञों के स्थायी निकाय पर नियंत्रण रखती है। यदि द्वित्तीय सदन की असहमति होने पर किसी प्रस्तावित कानून का तकनीकी दृष्टि से पुनरीक्षण करना भी पड़े, तो इससे कोई रुकावट नहीं होती आजकल लग भग सभी कानूनों पर प्रथम सदन सरकार के अंग में उनके पारित होने से पहले खूब अच्छी तरह से सोचविचार और बहस हो जाती है। वास्तव में द्वित्तीय सदन में होने वाली बहस एक तरह से पनुरावृत्ति है। इस पर लगने वाला समय ओर धन बेमतलब है, इस तर्क में कोई सच्चाई नहीं है कि ' द्विसदनीय विधायिकाओं में बहुमत की निरंकशता पर द्वित्तीय सदन अंकश लगाने का काम करता है। ऐसी स्थिति में तो कार्यपालिका के निलंबन- विशेषाधिकार जैसे उपायों की व्यवस्था की जा सकती है। साथ ही, सजग विपक्ष तथा जागरूक मतदाता विधायी बहमत की मनिरकश होने की प्रवृत्ति पर रोक लगा सकता है। आलोचक यह भी कहते हैं कि संघीय व्यवस्था के अंतर्गत द्वित्तीय सदन संघीय शक्ति के दुरूपयोग के विरुद्ध संघ की इकाइयों की कोई रक्षा नहीं कर सकता। पहली बात तो यह है कि द्वित्तीय सदन के सदस्य संघ की इकाइयों के हिंत को देखने के स्थान पर प्रायः अपने दल के हित की ही चिंता में लगे होते हैं। दसरे, संघीय प्रणाली के परिचालन के दौरान इकाइयों का प्रतिनिधित्व बेअसर और बेकार होने लगता है क्योकि आज संचार साधनों के द्रुत विकास के कारण हर देश में लोगों के बीच राष्ट्रवाद की भावना जोर पकड़ चुकी है। तीसरे, संविधान में प्रदत्त शक्तियों के मूल वितरण और संघ के कार्यकलापों की न्यायिक समीक्षा द्वारा इकाइयों के हित सुरक्षित हों जाते हैं। इस प्रकार समीक्षकों का मत है कि चाहे कितनी भी वकालत की जाए और कितने ही तक क्यों न दिए जाएँ, द्वितीय सदन के गठन को उचित नहीं ठहराया जा सकता। द्वितीय सदन के कार्य द्वितीय सदन के कार्यों के बारे में प्रायः तीन सिद्धांत प्रस्तुत किए जाते हैं। द्वित्तीय सदन सब मामलों में जनता द्वारा निर्वाचित प्रथम सदन के समान अधिकार रख सकता है। ऐसी स्थिति में कई




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