अतीत के कंपन | Atiit Ke Kampan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पत्थरकों आँखें जिन अफ़गानोंने सदियोंसे किसी बाहरी ताक़तके सामने सिर नहीं झुकाया था, उन्हें भी पैरों तलें रौंदती हुई सिकंदरकी सेनाएँ सन्‌ ३२७ ईसवी पूर्वके वसंतर्में खैबरके' दर्रेसे भारतमें भूचालकी तरह प्रा गईं । तक्षशिलाके बूढ़े शासककी इच्छाके विपरीत उसके बेटे आंभीने नजराना लेकर अपने दूत सिकंदरकी सेवामें भेज दिये । सिथुके तटठपर अनेक स्वतंत्र कबीलोंने उसके सामने घुटने टेक दिये। अश्वाक लोगोंने पहले-पहल विदेशी झाक्रमणकी श्रागको क्ञेला । एक बड़ा भारी हृत्याकाण्ड मचा । लगभग चालीस हजार अश्वाक वीर बंदी बनाकर सिकंदरकी सेनाश्रोका साजसामान ढोनेपर लगा दिये गये । उनकी सहायताके लिए आये हुए सहस्रों पं जावी भट एक घेरेमें घेरकर भालोंकी नोकोंपर उछाल दिये गये । रास्तेमें किसीको स्वतंत्र वायुकी साँस लेते हुए छोड़ देना सिकंदरके अदम्य स्वभावके विरुद्ध था । ऐसी स्थितिर्में उस पहाड़ी सिलसिलेके पूर्वेतम भागमें स्थित श्रसकान जातिका सरदार मृत्युको चनौती देनके लिए छाती तानकर खड़ा हो गया जीतनेका सवाल नहीं था । खुली आँखों हार जानेका प्रश्न था या आँखें बंद करके । वीर असकानी सरदारते दूसरा मार्ग चुना । यूनानी भाषामें मस्सगके स्थानपर खला हुआ वनाशका यह नाटक भी बहुत संक्षिप्त रहा । थोड़ ही समयमे ्रसकानोनि श्रपनी स्वतन्रताका मूल्य चुका दिया । जिस समय यूनानी सैनिक असकानोंकी झोपड़ियोंमें आग लगा रहे थे, लूटपाट कर रहे थे और उनकी स्त्रियोंका सतीत्व नष्ट कर रहे थे, उस समय सिकंदरके शिविरमें आनेवाले मोरचोंका लेखा-जोखा बन रहा




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