काव्य दर्पण | Kavyadarpan

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Kavyadarpan  by पं रामदहिन मिश्र - Pt. Ramdahin Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६ ) ( १ ) किसी कुप्रथा की बुराई के होने से ही कोई उपन्यास वीभत्स- प्रधान नहीं हो सकता | उपन्यास भर में कुप्रथा को बुराई हो तो भी वह वीभत्स-प्रधान नहों हो सकता । किसी प्रकार की कुप्रथा की बुराई का वर्णन वीमत्स के लक्षण में नहीं आता। ऐसा उपन्यास उपदेशात्मक की श्रेणी में आवेगा ओर इसका शिव पक्त अ्रबल माना जायगा । इस उपन्यास का रस वही होगा जैसा कि उसके वर्णन से पाठकों के मन पर प्रभाव पड़ेगा। समान लीजिये कि अबला पर अत्याचार की प्रबलता होने से क्रोध उपजेगा, समाज में विधवा की दीज्षता दिखलाने पर करुणा उत्पन्न होगी। यह जान रच्खें क़ि घुणा की सञ्जना से ही बीभत्स रस होता है। | (२) शोषक के कारण शोषित में जो बुराई आती है वह करुणा का विषय नहीं | वह बुराई प्रदिकार की भावना में फूट पड़ती है जो क्रोध का विषय है। गाँधीजी के शुद्ध, शान्त, सात्विक सत्याग्रह में भी क्रोध की ही भावना काम करती है। गाँधीजी भले ही इसके अपवाद माने जायेँ। जहाँ शोषक के प्रति शोषित की जो विवशता, असमर्थता और कादरता होगी, वहीं करुणा को स्थान मिल सकता है। केवल बुराइ की भावना करुणा का ही विषय नही हो सकती 1 ,, (३) रस की दृष्टि से विश्लेषण की बात मानी गयी है। साधुधाद । रामायण श्रौर महाभारत जैसे महापन्‍्धों के मुख्य रस अविदित नहीं रहे तो कीट-पतंगों जेसे स्थायी छुद्र मन्थो के सुख्ये रसों का पता लगना कोई कठिन बात नहीं है। इसके लिये काव्य- शाश्च का ज्ञान आवश्यक है । पाश्चात्य आलोचना का अनुशीलन प्राच्य रसतस्व के समभने में कभी सहायक नहीं होगा । | (४) *हिन्दू-समाज में वेश्याओं के प्रति आदर-प्रद्शन से वीभत्स रस नहीं हो सकता । इससे यह नहीं कहा जा सकता कि सेवासदन मे वीभत् रस है।। 'सृच्छकटिक' नाटक में 'वसन्तसेना” बेश्या है और उसके चरित्र का चारु चित्रण है। इससे क्या वह नाटक वीमत्स रस का है ? आश्रय ! महान आश्चय !! पान्न के उच्च-नीच होने से कोई काव्य या नाटक या उपन्यास दूषित नहीं होता। उसका चित्रण ही उसे उद्चनीच बनाता है। कोई साहित्यिक शरबन्द्र के धयरित्रैहीनः की नायिका छे आचरण से उसे कुत्सित उपन्यास कह सकता हे ! 9




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