सूक्ति त्रिवेणी वैदिक धारा | Sukti Triveni vaidik Dhara

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Sukti Triveni  vaidik Dhara by लक्ष्मीचन्द्र जैन - Laxmichandra jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका १५ रुपचन्दने कहीं भी अपना नाम केवल “चन्दके रूपमे नहीं दिया है । प्रत्येक स्थानपर “रूपचन्द' ही लिखा है । “अध्यात्म सवैया मे कविका नाम “चन्द' दिया हैं। अत णण्डे रूपचन्दकी कृति तो नहीं हो सकती । अन्तमें लिखे “रूपचन्द लिखित कवित्त समाप्त' किसी लिपिकर्त्ताका कार्य भी हो सकता है । उसने “चत्द'के आधारपर रूपचत्दका अनुमान लगा लिया होगा । दूसरे थे पं० रूपचन्द । वें बनारसीदासकें अभिन्न मित्र थे । उनके साथ अध्यात्म चचमि तल्लीन रहते थे । उनकी रचनाएँ उपलब्ध हुई है । इन्होंने भी कही “चन्द का प्रयोग सही किया है । “अध्यात्म सवेया के_ एक पद्चयमें आभासित होता है कि उसके रचयितता लालचन्द थे । उमर पद्य की अन्तिम पक्ति है. “आलस्यों अतीत महालालचन्द लेखिये ।” लालचन्दके कुछ पद दिंगस्वर जैन मन्दिर, वडौतके पदसग्रहमे संकर्ति हैं । वे विक्रमकी अठास्टवी दयताव्दीके कवि थे । किन्तु साथ ही तेरहवे और चौदहवें सवैयोकी अन्तिम पएक्तियोमे 'तेज कहे लिखा हुआ है । इनसे सिद्ध हैं कि किन्ही तेज नामके कविने इसका निर्माण किया था । मध्यकालीन हि्दी काव्यम 'तेज' नामके कोई कवि नही हुए । हो सकता है कि यह कविका उपनाम हो । किन्तु यह केवल अनुमान ही है । यदि 'तेज' उपनाम था तो दो के अतिरिक्त अन्य पछोमें उसका प्रयोग क्यों नहीं हुआ । न्रिसुवनचन्द नामके कवि हुए है, जिन्होंने प्राय अपने नामके अन्तमे “चन्द' का प्रयोग किया है । किन्तु इसी भाधारपर इसे न्रिभुवनचन्दकी डूति मान लेना युक्ति-सगत नही है । यहू भी स्पष्ट है कि त्रिभुवनचन्द अध्यात्मवादी तहीं थे । इस भाँति “अध्यात्म सवैया' के रचयिताकों लेकर एक उलझन है । मेरा मत हैं कि जवतक इस छृति- की तीन-चार प्रतियाँ विभिन्न भण्डारोमे उपलब्ध नही हो जाती, विचारक किसी सही निर्णयपर नही पहुँच सकते । मध्यकालीन जैनभक्त कत्रि 'निर्मुनिए सतो' की भाँति कोरे नही थे । उन्होंने विधिवत गिक्षा-दीक्षा ग्रहण की थी । इसी कारण प्रारम्भसे अन्त तक उनमें एक ऐसी गालीनताके दर्गन होते है, जिसके परिप्रेक्ष्यमे उनकी मस्ती भी नन प्रतीत होती है । उनमें वह अक्खडता भर कडवाहट नहीं है, जो कवीर- में थी । पोधी पढनेवाला पण्डित भले ही न हो पाता हो, किन्तु उससे ग्राम्यदोप- का नितान्त परिहार हो पाता है, यह सच है । जैन कवियोकी थिक्षाके भिन्न-भिन्न साधन थे | व्वेताम्बर आचार्य, होनहार वालकोको बचपनमें ही दीक्षा देकर अपने साघुसघमे शामिल कर लेते थे। वहाँपर हो उनकी प्रारम्भसे लेकर उच्चकोटि तककी गिक्षा होती थी ।




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