चिन्तन : मनन : अनुशीलन | Chintan : Manan : Anushilan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अनुशीलन' - ११ अर्थात्‌ जो सुन्दर भोगोपभोग के पदार्थों को प्राप्त करके भी उन्हें आत्मोन्नति हेतु त्याग देता है वही सच्चा त्यागी कहलाता है । धन-संग्रह जहाँ दु:ख-क्लेश का मूल है, वहां उसी धन को निस्पृहभाव से त्याग करने में महान ग्रात्मिक आनन्द का निवास है। फिर भी इस शाइवत सिद्धांत से विमुख होकर जो क्षणिक सुखाभास के दलदल में अपने आपको फंसाकर मानव जीवन को पतित बनाता है, वह त्यागी भतृ हरि के शब्दों में “तिल की खल को पकाने के लिये अम्‌ल्य रत्नों के पात्र का उपयोग करने वाले, झोक की खेती के लिये स्वर्ण के हल से धरती को खोदने वाले और कोदरे अन्न के लिये कपूर की खेती को नष्ट करने वाले व्यक्ति की तरह” अपने आपको वच्रमृखं ही सिद्ध करता है । इस जीवन में आत्मोत्थान के सभी संयोग उपलब्ध होने पर भी उनकी ओर ध्यान न देकर धनलिप्सा व मभिथ्या व्यामोहों में फंस जाना अपनी ही आत्मा के साथ भीषण विश्वासघात करता और मानव-जीवन की अनुपम विशिष्टता को व्यर्थ ही में खो देना है । दुराग्रह को दूर करो @ मानव जीवन में प्रनेक प्रकार की दुबैलतायें देखी । प्रथम तो मनुष्य का अपने विचारों के प्रति




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