प्रेरणा की दिव्य रेखाएं | Prerna Ki Divya Rekhayein

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Prerna Ki Divya Rekhayein by नानालाल जी महाराज - Nanalal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २ ) माग का प्रवलोकन नहीं किया है वहु दूसरे को मार्ग नहीं वता सकता । जिसका हष्टिकोण वाहर ही बाहर दोड़ता रहा, जो आत्मा से भिन्न भौतिक पदार्थों को ही सब कुछ समभता रहा वह्‌ श्रपने भीतरी स्वरूप को कंसे समभ सकता है ? जिसने कभी श्रन्तरतर के समुद्र में इबकी नहीं लगाई, वह ॒ उसमें रही हुई अमूल्य र॒त्न-राशि को कंसे पा सकता है ? चेतन की विराट शक्तिः | यह विराट चेतन-तत्त्व अपने आप में परिपूर्ण है । उसे अन्य पदार्थों की कोई अपेक्षा नहीं रहती ! अन्य पदार्थों की अपेक्षा उसी को रहती है जो स्वयं परिपूर्ण न हो । जल की दृष्टि से समुद्र परिपूर्ण है, वह कृप-जल की या नदी के जल की आशा नहीं करता । यह वात दूसरी है कि समग्र जल स्वयमेव समुद्र को ओर चला आता है । समुद्र उसकी आकांक्षा या आशा नहीं रखता । वैसे ही विराट चेतन स्वतः परिपुणं है अतएव वह्‌ अन्य किसी पदार्थ की अपेक्षा नहीं रखता । चेतन तत्त्व अपने भौतिक रूप में स्वयं प्रभु और सा्वभोम शक्ति-सम्पन्न है । परमात्मा की शक्ति से उसको शक्ति किडज्चितु भी कम नहीं है । जिस तत्त्व में ऐसी विराट शक्ति रही हुई है, उसके लिए तुच्छ भौतिक पदार्थों की लालसा कोई महत्त्व नहीं रखती । क्या सूर्य अपने प्रकाश को प्रकाशित करने के लिये मिट्टी के ढेलों की अपेक्षा रखता है ? क्‍या कभी वह पहाड़ों, चट्टानों या प्रथ्वी- तल की अन्य चीजों की आशा या अपेक्षा रखता है ? हर कोई जानता है कि सूर्य को इनकी अपेक्षा नहीं रहती । इसी तरह भव्य जनों को यह विश्वास होता है कि उनकी आत्मा सूर्य के प्रकाश से भी अधिक प्रकाश का पुज है ।




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