रत्न सागर | Ratn Sagar

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Ratn Sagar by आचार्य तुलसी - Acharya Tulsi

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about आचार्य तुलसी - Acharya Tulsi

Add Infomation AboutAcharya Tulsi

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
सत्य सागर - १९ पन को भर्म उच्चाद उठावे। मन्‌ बिन एक टिकन वहिं पावे ॥ ज्ञान बैराग कहे बहुतेशा। तो घन नहि खाये वहि केरा ॥ ॥ दोह। ॥ कर्प भाव विष व्याध की, घुने समस्‌ सख पाय । हाथ कपी आये नहीं, क्येकिर संग समाय ॥ ॥ चोपाई ॥ रस की लहर बसे घन साँचे । ओर लहर बने कधी ने राचे ॥ अपनी बुधिमत ज्ञान बिवारे । सत्संग समझे कभी नहिं धारे॥ सत्संग का रस पियन थे पावे । परख प्रधान ओर विधि लावे ॥ जिन कोइ सटक भाव दरसाया | লাঁী দাঁত দিই জল আসা ।। यह बंधन का करे बिधेका | केस केस पावे मन का ठेका ॥ जो कोइ लाख कहे उपकारी | झावे ने मन से बात करारी ॥ मने सतसँग से उचदा चावे । जुधि जद यह बिपरीत उठावे॥ - लाभ धरी बुभ निं साईं । हं सव पुरब जोग अधिकाई ॥ ॥ दोहा ।\ सतसँग में बन ना बसे, फ्रँसे कर्म के माहि ! खाय 'बिषय विश्वास हु सि कोड्‌ पियत अघाय्‌॥ ~ ॥ নাথাহ |) मन तन रस को पल पल धावे । इंद्री के रस को झुख चावे॥ फीकी नीकि चिकन कड़वाई। पटरस भोजन माहि मिठाई॥ इंद्री भोजन भोग बिलासा। यह घन में उपजे बिखासा॥ ` शग रंग नित्त एने विकश्षा ! अवे न नींद रात भर पासा ॥ कोउ सतसंग जाग से पावे । तौ सह साँक नींद सर्‌ खवे॥ भोजन करे पेट भर णाई। तो घर नींद कौन के जाई ॥ यह्‌ रट सब षन जीर युलाना | লিজ তিন रहे गहे नहिं काना ॥ भम॑ ष्टे, नहि कते सां । डी सन मिलि मौज वसाईं ॥




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now