रत्न सागर | Ratn Sagar
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
182
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सत्य सागर - १९
पन को भर्म उच्चाद उठावे। मन् बिन एक टिकन वहिं पावे ॥
ज्ञान बैराग कहे बहुतेशा। तो घन नहि खाये वहि केरा ॥
॥ दोह। ॥
कर्प भाव विष व्याध की, घुने समस् सख पाय ।
हाथ कपी आये नहीं, क्येकिर संग समाय ॥
॥ चोपाई ॥
रस की लहर बसे घन साँचे । ओर लहर बने कधी ने राचे ॥
अपनी बुधिमत ज्ञान बिवारे । सत्संग समझे कभी नहिं धारे॥
सत्संग का रस पियन थे पावे । परख प्रधान ओर विधि लावे ॥
जिन कोइ सटक भाव दरसाया | লাঁী দাঁত দিই জল আসা ।।
यह बंधन का करे बिधेका | केस केस पावे मन का ठेका ॥
जो कोइ लाख कहे उपकारी | झावे ने मन से बात करारी ॥
मने सतसँग से उचदा चावे । जुधि जद यह बिपरीत उठावे॥ -
लाभ धरी बुभ निं साईं । हं सव पुरब जोग अधिकाई ॥
॥ दोहा ।\
सतसँग में बन ना बसे, फ्रँसे कर्म के माहि !
खाय 'बिषय विश्वास हु सि कोड् पियत अघाय्॥
~ ॥ নাথাহ |)
मन तन रस को पल पल धावे । इंद्री के रस को झुख चावे॥
फीकी नीकि चिकन कड़वाई। पटरस भोजन माहि मिठाई॥
इंद्री भोजन भोग बिलासा। यह घन में उपजे बिखासा॥
` शग रंग नित्त एने विकश्षा ! अवे न नींद रात भर पासा ॥
कोउ सतसंग जाग से पावे । तौ सह साँक नींद सर् खवे॥
भोजन करे पेट भर णाई। तो घर नींद कौन के जाई ॥
यह् रट सब षन जीर युलाना | লিজ তিন रहे गहे नहिं काना ॥
भम॑ ष्टे, नहि कते सां । डी सन मिलि मौज वसाईं ॥
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