राज सन्यासी | Raj Sanyasi

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धूमकेतु - Dhoomketu

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श्यामू संन्यासी - Shyamu Sainasi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ध्तिजशञा का पालन न कदं तो रौरव नक मँ गिर १७ व गया, वेटे ! बहुत अच्छा किया केसर | भैया तेरे लिए तो....” इद्ध बोलने लगे, परन्तु थक गये। तेरे लिए तो बेटा. मैंने मोत को रोके रखा या, मेरे लाल | (पिताजी ! क्‍या ই १ कौन-सा काम था? षृद्ध कु न बरोले । थोड़ी देर ग्रं मूदे चुप पडे रदे । (पिताजी, कौन-सा काम था ? केसर ने पुनः पूछा । भीमदेव महाराज क्या कर रदे है ¢ “पिताजी, वह तो संघ पर चढ़े आ रहे हैं ! श्रमी तो आयबू पर घेरा डाला है [? ' केसरदेव ने वृद्ध की ओर देखा। अभी तक उनकी ग्रोखिं मदी हुई थीं | (पिताजी कौन-सा काम था, यह तो श्रापने बतलाया दी नहीं | हो .. गा ! तब तो कहेँ । बड़ा तो इनकार कर ही चुका है | केसरदेव ने चारण शंकर की ओर देखा | चारण ने अपना मुँह चूद्ध के समीप ले जाकर कहा, 'मकवाणाजी, कैसे जाना कि नहीं होगा १ चौसठ भुजावाली मेरी माता की छुत्र-छाया जिस पर है उससे भी यदि काम न बना तब फिर किससे बनेगा | आप तो अपने मन की वात कह दीजिये, जिसमें मन की व्यग्रता मिट सके ओर शान्ति हो ।! बड़े ने तो हाथ थो उलि... कोई चिन्ता नहीं--उसने भले ही धो डाले....! वशतेरा--परताप--इनका भी मन टोह लिया । इसी लिए जी पीछे इट रहा है चारणजी !? बापू !! केसर अपने सदा के निश्चयात्मक स्वर में बोला, अब मन को बात मन में रखिये मत | जो कुछ मी दिल में हो कह ही दीजिये, पिता- जी; मैं तो बैठा ही हू न !? उसने चारों ओर देखा । सामन्त-मंडल निरुत्साहित हो रहा था




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