मनोविज्ञान के क्षेत्र | Manovigyan Ke Kshetra

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Manovigyan Ke Kshetra by राममूर्ति लूम्बा - Rammurti Loomba

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मनोविज्ञान का विकास ७ _ किसी अन्य प्रकार के तथ्यों की घारणा अनावश्यक है। संवेदनाएँ स्वयं ही पर्याप्त हैं । वे स्वयं ही अपनी विषमता के कारण अनुमान और तुलना में आ जाती हैं, एवं सुखात्मक अथवा दुःखात्मक होती हूं । स्वाभाविक है कि सुखात्मक संवेदनाएँ देर तक बनी रहें और बारम्बार हों तथा दुःखात्मक संवेदनाएँ यथासम्मव शीघ्र ही समाप्त हो जाएँ। स्वयं संवेदनाओं का यही स्वभाव और नियम है । दृष्टि, स्पर्शादि संवेदना-प्रकार विविध अवश्य हैं परन्तु उन सबके नियम एक से ही हैं। इस संवेदना-केन्द्रित मनोविज्ञान को बोने ने देहिक आघार दे दिया। उसने यह सुझाया कि विभिन्न संवेदना-प्रकारों में अन्तर इतना ही है कि वे मस्तिष्क के विभिन्न भागों की क्रियाशीलता पर निर्भर है । इस राती के अन्तिम भाग में देहिक आवार खोजने वाली, डेकार्ट, होब्ज्, हार्टके से आती हुई मनोविज्ञान की इस धारा के अन्तगंत काबानी ने एक विचित्र प्रश्न उठाया, कि फाँसी पर लटकाये गये व्यक्ति को कष्ट होता है कि नहीं। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मनोदहिक प्रक्रिया के तीन स्तर होते हें । निम्नतम स्तर पर मेरु-रज्जु है। यह उत्ते- जनाओं की प्रतिक्रिया में सहज क्रियाएँ करता है। मध्य स्तर पर अधंचेतन, अर्धसंगठित क्रियाएँ होती हैं । उच्चतम स्तर पर चिंतन एवं संकल्प जैसे जटिल प्रकायं होते है । फसी पर र्टकने से देह में केवल निम्न स्तर की यंत्रवत्‌ होने वाली सहज क्रियाएँ ही होती हें, मस्तिष्क का उनमें कोई काम नहीं होता । इसलिए मानसिक प्रक्रिया नहीं हो सकती और कष्ट भी असम्भव होगा । यही नहीं, काबानी ने मस्तिष्क की प्रक्रियाओं को भी सहजप्रक्रिया के समान स्नायु- परकायं द्वारा परिेशके प्रति सक्रिय समायोजन का यंत्रवत्‌ साधन ही माना । केवल उसमें विकास द्वारा प्राप्त कुछ अधिक जटिलता स्वीकार की । काबानी ने सामाजिक उत्तेजना से उत्पन्न व्यक्तिगत व्यवहार के नियमों के अध्ययन के लिए समाज-मनोविज्ञान की स्पष्ट धारणा भी व्यक्त की । इसी शताब्दी में मनोरोगों के अध्ययन का पुनरारम्भ भी फ्रांस में काबानी के मनो- : दैहिकी विचारों से ही हुआ । उसने मस्तिष्क के स्नायु-प्रकार्य आधार के पक्ष में, मस्तिष्क- रोग और मानसिक रोग का सम्बन्ध दर्शाने वाले बहुत से प्रदत्त एकत्रित किये । उसके बाद बिका ने मानवदेह को अवयव-समूह समझने वाली अब तक प्रचलित धारणा से आगे बढ़कर, देह का सूक्ष्मतर विश्लेषण करके, कुछ थोड़े से प्रकारों के ऊतकों से बनी हुई सिद्ध किया। परिणामस्वरूप उसने मानसिक रोग को शारीरिक एवं औतिकीय असा- मान्यता के रूप में दर्शाया। छगभग इसी समय पेरिस के उन्मादी सदन के संचालक पिने ` ने उन्मादियों के प्रति शैतानग्रसित नहीं; मस्तिष्क-रोग-ग्रस्त और सहानुमूति योग्य होने पर बल दिया । उनकी बेड्याँ कटवा दीं, उनके रोगों का वर्गीकरण किया ।




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