शरत्-साहित्य श्रीकान्त (तृतीय पर्व) | Sharat Sahitya Shreekant (Tritiya Parv)

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Sharat Sahitya Shreekant (Tritiya Parv) by धन्यकुमार जैन - Dhanyakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१५ ही क्षणमें उसका सब कुछ मनसे घुल-पुछ गया हो, सो मी सत्य नहीं; परन्तु, इस अन्तिम छेषमें जिस वस्तुको मैंने आज तक मन लगाकर नहीं देखा था, उसीको देखा । जहँसे इस अद्भुत मानवीके व्यक्त और अव्यक्त जीवनकी धाराएँ दो बिलकुल प्रतिकूल गतियोंमें बहती चली आ रही हैं, आज मेरी निगाह ठीक उसी स्थानपर जाकर पड़ी। एक दिन अत्यन्त आश्वय्यमें द्बकर सोचा था कि बचपंनमें राजलक्ष्मीने जिसे प्यार क्रिया था उसीको प्यारीने अपने उन्माद-यौवनकी किसी अतृत्त छाछ्साके कीचड़से इस तरह बहुत ही आसानीसे खदख-दल-विक्रिंसित कमलकी माति परक मारते ही बाहर निका दिया ! आज मालूम हुआ कि वह प्यारी नही है,--वह राजलक्ष्मी ही हे । ° राजलक्ष्मी › ओर “ प्यारी ? इन दो नामोकि मीतर उसके नारी-जीवनका कितना बड़ा इंगित छिपा था, मेंने उसे देखकर भी नहीं देखा, इसीसे कभी कभी संशयमें पड़कर सोचा है कि एकके अन्दर दूसरा आदमी अब तक कैसे जिन्दा था ! परन्तु, मनुष्य तो ऐसा ही है! इसीसे तो वह मनुष्य ই! प्यारीका सारा इतिहास मुझे माल्म नहीं, माढ्म करनेकी इच्छा भी नहीं । और राजलक्ष्मीका ही सारा इतिहास जानता होऊँ, सो मी नहीं; सिर्फ इतना ही जानता हूँ कि इन दोनोंके मर्म और कर्ममें न कभी किसी दिन कोई मेल था और न सामंजस्य ही | हमेशा ही दोनों परस्पर उलटे ख्लोतमें बहती गई हैं+ इसीसे . एककी निम्रत सरसीमें जब शुद्ध सुन्दर प्रेमका कमर धीरे धीरे लगातार दलछ पर दल फेलाता गया है तब दूसरीके दुदान्‍्त जीवनका तृफान वहाँ ब्याघात इसीसे से तो उसकी तो क्या करेगाः--उसे प्रवेशका मागं तक नहीं मिखां |. হর एक पृँखुड़ीतक नहीं झड़ी हे,---जरा-सी धूछ तक उड़कर आज तक उसे स्पश | नहीं कर संकी है शीत ऋतुकी सन्ध्या जल्दी ही घनी हो आईं, मगर मैं वहीं बैठा सोचता ¦ रहा । मन ही मन নীতা, ° मनुष्य सिर्फ उसकी देह ही तो नहीं है! प्यासी नहीं रही, वह मर गईं। परन्तु, किसी दिन अगर उसने अपनी उस देहपर कुछ स्याही छगा भी ली हो तो क्या सिर्फ उसीको बड़ा करके देखता रहूँ, और राजलूक्ष्मी जो अपने सहख-कोटि दुःखोंकी अग्नि-परीक्षा पार करके आज अपनी अकलंक अश्नतामें सामने आकर खड़ी हुईं है उसे मुँह फेरकर विदा कर दूँ! मनुष्यमे जो पञ्यु है, सिफं उसीके अन्यायसे ओर उसीकी मूक-मान्तिस्-- ` मनुष्यका विचार कर १ ओर जिस देवताने समस्त दुःख, सम्पूण व्यथा ओर




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