चरणदास जी की बानी | Charan Das Ji Ki Bani Bhag Ii
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2.58 MB
कुल पष्ठ :
70
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भेद बानी श्द्
उनमुनी श्र चित हेत करि बसि रहो
देखि निज रूप मनुवाँ मिलायो ॥ ७ ॥
काल रु ज्वाल जग व्याधि सब मिरि गईं
जीव सूँ हम गति बेगि पायो ॥ ८ ॥।
चरनदास. रनजीत सुकदेव को दया सू
अभय पद एरसि झवगति समायो ॥ £ ॥
शल्द २३
॥ राग सारंग च विलावल व सोरठ ॥
साधो अजब नगर अधिकाई ।
झौघट घाद बाद जहूँ बाकी उस मारग हम जाई ॥ १ ॥।
सबने बिना बहु बानी सुनिये बिन जिस्या स्वर गावें ।
बिना नेन जहूँ अचरज दीखे बिना अंग लिपदावे ॥ २ ॥
बिना नातिका बास पुष्प की बिना पाँव गिर चढ़िया ।
बिना हाथ जहेँ मिली धाय के बिन पाधा जहूँ पढ़िया ॥ है ॥।
ऐसा घर बड़भागी पाया पहिरि गुरू का बाना ।
निस्वल है के दाता मारी मिटि गयो झावन जाना ॥ ४ ॥।
गुरु सुकदेव करी जब किरपा झचुभो जुद्धि प्रकासी ।
चौथे पद में झयानंद यारी चरनदास जहूँ बासी ॥ ४ ॥
शब्द २४
॥ राग सीठना ॥
टुक निगुंत छेज़ा सूँ, कि नेह लगाव री ।
जा को अजर अमर है देस, महल बेगमपुर री ॥ १ ॥
जहें सदा सोहागिन दोय, दिया सूँ भिलि रहुं री ।
जह आावा गवन न होय, मुक्ति चेरी तेरी ॥ २ ॥
' कहें चरनदास शुरु मिले, सोई हाँ रहु वौरी ।
तन सुख सागर के बीच, कलहरी* है रहु री ॥ ३॥
(१) पहाड़ । (९) कल्वारिन |
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