काव्य सम्प्रदाय और वाद | Kavy Sampraday Aur Vad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भारतीय काव्यशास्त्र का इतिहास “परत से लेकर विश्वनाथ या जगन्नाथ पर्यन्त हसारे देश के अलङ्कार-मन्थो मे साहिव्यदिषयक जसी श्रालोचना दौीख पड़ती है वेसी ही आलोचना दूसरी किसी भाषा में आज तेक हुईं हैं, यह सुमे ज्ञात नहीं |?” डा० सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त | भारतीय विद्वानों का काव्यदास्व का श्रनुलीलन समृद्ध, प्रौढ, सूक्ष्म श्रोर वैज्ञानिक है । इसके पीछे सहस्रो वर्षो का इतिहास श्रौर न जने कितने मनीषियों की साधना छिपी हुई है । विश्वके पुस्तकालय के प्राचीनतम ग्रन्थों--वेदों में, स्वयं वेद को काव्य कहा गया है॥। निःसन्देह वहाँ यह काव्यः शन्द एक विशिष्ट श्रये मं ही प्रयुक्त किया गया है--““परय देवस्य काव्यं न भमार न जीयेति) ' अर्थात्‌ ए मनुष्य ! तू परमात्मदेव के उस काव्य को देख जो न कभी मरा है और न जीर्ण होता है । काव्य की इससे अधिक मौलिक एवं स्पष्ट व्याख्या क्‍या हो सकती है ! काव्य को अ्रजर-अमर कहकर कला के तत्त्वों को एक स्थान मं समाहूत कर दिया है । इतनी पुष्ठ व्याख्या के साथ-साथ कान्य शब्द का प्रयोग श्रसन्दिग्वरू्पेण उस बात का ज्ञापक है कि वैदिक ऋषि काव्य के स्वरूप व महत्ता से सम्यक्तया परिचित थे! इसके अतिरिक्त वेदिक ऋचाश्रो में भी उत्कृष्ट कोटि का काव्यत्व प्राप्त होता है, यह सब हम यथास्थान देखेंगे । यद्यपि भारतीयों ने सहस्रो वर्षो की विशाल ग्रन्थ-रत्न-राशि और उसकी अमूल्य ज्ञन-निधियों को श्रद्भुतरीत्या सुरक्षित रखने कौ जो तत्परता दिखाई है वह्‌ न केवल प्रशंसनीय ही है, अपितु आइचर्यजवक




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