बंगला साहित्य दर्शन | Bangla Sahitya Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ बंगला साहित्य-दर्शन पुराण को बंगाल के लोगों ने भी ग्रहण किया । बौद्ध और जन मतवाद भी इसी प्रकार से बंगाल में आये अर प्रचारित हुए ।” हम आगे भी सुनीतिबाबू का उद्धरण देंगे , क्योंकि उन्होंने ही इस संबंध में सव से अधिक खोज की है, और उन्होंने बंगला भाषा को उत्पत्ति श्लौर विकास के संबंध में जो विराट ग्रथ लिखा है, वह किसी भी भारतीय भाषा पर लिखित सबसे अच्छी पुस्तक है। वह लिखते हैं कि समुद्रगुप्त के एक शिला-लेख से यह पता लगता दै कि शायद कामरूप के साथ-साथ पूर्वी बंगाल भी उनके अ्रधीन था। ऐसा ज्ञात होता है कि जो ब्राह्मण उत्तर भारत से जाकर इन नये उपनि- वेशों में बसते थे, वे मध्यदेशविनिर्गत रूप में उल्लिखित है, और उन्हे धर्म- प्रचार तथा यज्ञादि करने के लिए जागीरें दी जाती थीं । ये लोग एक तरह से ब्राह्मण्य धर्म के पादरी थे और इनके कारण राजशक्तिको बल मिलता था। ये लोग धर्म-प्रचार के अतिरिक्त भाषा-प्रचार भी करते थे, और चू कि उनकी भाषा ग्रधीनस्थ लोगों की भाषा के मुकाबले में श्रधिक उन्‍नत थी, और उसमें साहित्य उत्पन्न हो चुका था, इसलिए कालान्‍्तर में उनकी भाषा ने अनाय भाषाग्रों को परास्त कर दिया, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । जिस समय चीनी पर्यटक फाहियान पांचवी शताब्दी में बंगाल में आये, उस समय बंगाल के कम-से-कम पश्चिम और उत्तर में आय॑ संस्कृति और भाषा का प्रचार हो चुका था। फाहियान ताम्रलिप्ति में दो वर्ष तक रहे और वहां वह हस्तलिखित पुस्तकों की नकलें तेयार करते रहे । इससे यह प्रमाणित है कि बंगाल में आये भाषा के प्रवार का कार्य पंचम शताब्दी के आरंभ में ही बहुत ग्रागे बढ़ चुका था, तभी तो फाहियान ने अपने पर्यटन' के दो वर्ष यहां व्यतीत किये। इसके बाद जिस समय सप्तम शताब्दी के पूर्वार््ध में दूसरे प्रसिद्ध चीनी पर्यटक हाय नसांग भारत में पधारे, उस समय वह बंगाल में भी गये थे। सौभाग्य से उन्होंने अपने पर्यटन का विस्तृत विवरण लिखा है और उस विवरण में उन्होंने प्रचलित भाषाओं के संबंध में भी कुछ लिखा है। उन्होंने अंग और काजंगल से गंगा पारकर पुंड्वद्धन या उत्तरी मध्य बंगाल मे पदापेण किया। वहां उन्होंने देखा कि न केवल महायान और हीनयान बौद्ध धमं का प्रचार है, अपितु साथ-ही-साथ ब्राह्मण्य धर्म और जेन धर्म का भी प्रचार है । यहां यह




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