विराग | Virag

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Virag by धन्यकुमार जैन - Dhanykumar Jain

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about धन्यकुमार जैन 'सुधेश '-Dhanyakumar Jain 'Sudhesh'

Add Infomation AboutDhanyakumar JainSudhesh'

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
प्रथम জা ] फिर शयन कन्ष तक आयी , वह्‌ मन्थर गति से चलती। पहुँची गवाक्ष से भीतर , नव द्यृति का स्रोत उगलती ॥ मणि-किरणो से टकरायी , नीलम मणियो के तम मे। कुछ क्षण तक वहाँ ठिठक कर , वह पड़ी रही विभ्रम मे ॥ अनुरजित होकर उसका-- भी वर्ण हुआ था नीला। करता था चकित वहो का- वह वातावरण रेगीला॥ मणिमय पङ्क विद्धा था, जिस पर कुमार थे लेटे। লিজ सीमित तन मे जग का- सौन्दथं असीम আজই || इस भाँति न जाने कब तक, वह रूपाम्त का पीती। जिसने सुरपुर के अमृत, की सहिमा भी थी जीती ॥ पर्‌ इतने मे ছা सन्मति- ने सुन्दर दृग-युग खोला। जिसमे ही मलक रहा था, ्न्तस्तल उनका भोला ॥




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now