श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि | Srimantrarajgunkalpamahodadhi

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Srimantrarajgunkalpamahodadhi  by जयदयाल शर्मा शास्त्री - Jaydayal Sharma Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विपय चारों शुद्ध ध्यानों के अधिकारी -विपयाचुक्रमणिकाः ~ निश्चल भंगः को ध्यानत्त्द * अन्य योगी-ध्यान-दैतु प्रथम शुक्र ध्यान का आलरूम्बन अन्तिम दो ध्यानों के अधिकारी योग से योगान्तर प गमन संक्रमण तथा व्यान्रुत्ति पूणीस्याखी योगी कै गुण ~~ ००५ ৬ ৪৪৬ 11) ७०७ ०० ৬০ ৮৮৬ _अविचार से युक्त एकतव ध्यान का स्वरूप -*- मन का अपणु में स्थापन मनः स्थैर्यं का फल _. ध्यानाग्नि के प्रडबलित होने पर योगीन्द्र को फर प्राति तथा उसका महत्व , _ ৬৬ ৮৬ ৮৮৪ 111 १०७ 1; ००४ कर्मो की अधिकता होने पर योगी को. समुद्घात करने की - आवश्यकता दण्डादि का विश्वान दृएडादि विधानके पश्चात्‌ ध्यान विधि तथा उस का फल. ००५ ৬ ৬৮৪ ००० =९ ०४५ धचुमव सिद्ध निम तन्वा कणन *** चित्त के विश्षिप्त आदि चार सेद्‌ तथा उन का सरूप ˆ` 'निरारूस्त्र ध्यान सेवन का उपदेश व उस को विधि *९* चहिरात्मा व अन्तरोत्माका खरूप *** - परमात्मा का खरूप [व्‌ श योगी का कत्तेंड्य आत्मध्यान का फरले ०५० 4.४ 117) तत्त्वज्ञान प्रकर होने का हेतु शुरुसेवन की आज्ञा. शुरू-महिसा নত शुत्ति का ओौदाद्लीन्य करना --` सद्भूदप तथा कामना का त्याग भोदासतीन्य महिसा '- ৯ গগহ ०४० ००१ ००१ ७१० চে ৮৪ ১৬) पृष्ठ ले पृषठतन्छः दर श्रय হু १२२ शय यद ९२३ शद १२३ १२३ ९२३ यद १२ १२६ १२६ १२७ १२७ १२८ १२८ १२८ १२८ १९८ १९८ १९६ १२६ १२६ १२६ १९६. ५ १२७ १२६




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