रवीन्द्र साहित्य (सत्रहवाँ भाग) | Ravindra Sahitya (Bhaag 17)

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Ravindra Sahitya (Bhaag 17) by धन्यकुमार जैन - Dhanyakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तपष्ठी * नाटक १५ चाहो तो करो ; किन्तु मेरे विपक्षमें जो अन्याय किया है, कया में भी उन्हे क्षमा कर ই? तुम्हारी क्षमाके आश्रयमें प्रजापर जो अद्याचार किया जा रहा है, उसमें भी तुम वाधा न दोगे * विक्रम--झठा अपवाद फैला रही है प्रजा । विदेशी होनेसे प्रजा उनसे ईर्षा करती है । सुमित्र---उसका भी तो विचार होना चाहिए । विक्म--इन-सब मामलों तुस जब हस्तक्षेप करती हो, मद्दारानी, तो मेरे लिए सुविचार करना कठिन हो जाता है। तुम स्वयं अभियोग कर रदी हो, उसके ऊपर मैं क्‍या किसी प्रमाणनों आसन दे सकता हूँ * तुम्दारे अनुरोध करनेपर युधाजितको मुझे बिना विचारके ही पदच्युत कर देना पढ़ा । और भी अमाल्य-वलि चाहिए तुम्हें सुमित्रा--तो यही ठीक है । तुम न्याय-विचार न करो। मेरी ही प्राथैना रखो । कादमीरके उन विश्वासधातकोंने अगर कोई अपराध न भी किया हो, तो भी, मेरे रात-दिनके लज्जाके कारण हैं वे। घुमे! उस लजासे बचाओ । चिक्रम--वे कलक स्वीकार करके संकटको सामने रखकर मेरे पास आकर खड़े हुए थे। तुम्हारे कटनेपरभी मे उन्हें नही छोड़ सकृता। देखो प्रिये, राजाके हृदयपर ही तुम्हारा अधिकार है, राजाके कतंव्यपर नहीं, इस बातको याद रखना । सुमित्र--मद्दाराज, तुम्हारे विलासमें में सेमिनी हूँ, तुम्हारे राज-धर्ममें मैं कोई भी नहीं, इस बातको याद रखनेमें मुझे जरा सी सुख नहीं । विक्रम---छुनो, ४नो, रानी ! सुमित्रा (लौटकर)--क्या है, कहो । विक्रम--तुम जाग क्यों नहीं रही हो किस लिए है तुम्हारा यद्द सूक्ष्म आवरण * अपनी सम्पूणे राज-शक्तिसे भी इसे मैं नहीं हटा सका । अपनेको प्रकट करो, - दिखाई दो, पकढ़ाई दो, रानी | मुझे; इस अत्यन्त अध्श्य वंचनासे विड़म्बित न करो ।




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