महापुराणम् | Mahapuranam

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Mahapuranam by पंडित पन्नलाल जैन - Pandit Pannalal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ महापुराणान्तगेत इत्तरपुराण महापुराणकी रचनामें आाचाये जिनसेन और गुणभद्रने आगमिक परम्परा तथा यतिक्षषभक्तत तिलोय-पण्णरि व कवि परमेष्टि कृत 'वागर्थ संग्रह” जैसी आगमोत्तर रचनाओंका भी बहुत कुछ आधार किया है। किन्तु उनकी यह कृति इतनी प्रामाणिक, सर्वाक्षपूर्ण और श्रेष्ठ सिद्ध हुईं कि उसकी तत्तद्‌ विषयक पूर्वकालीन रचनाएँ प्रायः क्षन्धकारमें पड़ गई । जतः यद कोई आश्रर्यकी बात नहीं कि कवि परमेष्ठी मैसे प्रंथकारोंकी रचनाएं उपेक्षित हो गईं और क्रमसे काछके गालमें समा गईं । यह महापुराण अपन्र'श कवि पुष्पदन्त, संस्कृत कवि हेमचन्द्र और भाशाघर, कन्नढ कवि चासुण्ड- राय एवं श्रीपुराणकार तामिल कवि आदिकी रचनाओंके लिए यदि साक्षात्‌ और एकमात्र भाघार नहीं तो आदर्श अवश्य रहा है। इसके घतिरिक्त जिन जैन छेखकॉने किसी एक तीर्थंकर, चक्रवर्ती अथवा बाहुबली, प्रथम्न, जीवंधर आदि प्राचीन महापुरुषका चरित्र ভিজা है, वे भी अपनी रचनाभंक्ते पोषक ५9 वर्णन और विस्तारके लिए इन्हीं ग्रंथोंके ऋणी हैं । महापुराण दो भागोंमें विभक्त है। प्रथममाग आदिपुराण कहछाता है और उसमें सैंतालीस पे हैं। द्वितीयभाग उत्तरपुराणके अन्तर्गत उनतीस पव॑ हँ । इस प्रकार पूरा महापुराण छिहचचर पर्वोर्मे समाप्त हुआ है जिनका समस्त म्रंथात्र छगमग बीस हजार होक-प्रमाण है। आदिपुराणके ब्याकीस पर और तेतालीसवें पर्वे तीन पद्य, जिनका श्छोक प्रमाण लगभग बारह हजार होता है, आचाये जिनसेन कृत हैं भौर प्र॑थका शेषभाग उनके शिष्य आचाये गुणभव्॒की रचना है। आदिपुराणमें प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती इन दो का ही चरित्र वर्णित हो पाया है शोष इकसठ शलाका पुरुषोंका जीवन चरित्र उत्तरपुराण में ग्रथित हुआ है। इससे स्पष्ट है कि उत्तरपुराणके कोई आठहजार 'छोक अमाणमें बर्णन-विस्तारकी अपेक्षा नाम-धामोल्लेख ही अधिक है । जैनधमेके विविध अंगोंके सुयोग्य व्याख्याता तथा संस्कृत भाषाके सफल कछाकारके नाते जिनसेन अपनी रचनाके प्रमाण और गुण इन दोनों दष्टियोसे भारतीय साहित्यमें एक अद्वितीय स्थान रखते हैं । उनके वैयक्तिक जीवनके सम्बन्धर्मे हमारी जानकारी बहुत कम है, तथापि अपनी जयधवला टीकाके अन्तर्मे उन्होंने जो कुछ पद्च-रचना की है उससे उनके व्यक्तित्वकी बुछ झलके मिरु जाती हैं। जान पड़ता है, उन्होंने अपने बाल्यकारूमें ही जिन-दीक्षा ग्रहण कर ली थी, और तभीसे वे निरन्तर कठोर ब्रक्षच्यके पालन एवं धार्मिक व साहित्यिक प्रश्ृृत्तियोंमें ही पूर्णतः संलुप्त रहे । यद्यपि वे शरोरसे कृशा थे और देखनेमें सुन्दर भी नहीं थे, तथापि वे तपस्यामें सुदद और बुद्धि, चैयं एवं विनयादि रुर्णोमे प्रतिभावान्‌ ये।वे शान और अध्यात्मके मूर्तिमान्‌ अवतार ही कहे जा सकते हैं । सुनिधमंकी इष्टिसे जिनसेन एक भ्यक्तिमाग्र नही किन्तु एक संस्थाके समान थे। थे वीरसेन जैसे महान्‌ युरुके महान्‌ शिष्य थे। उन्होंने अपने गुर्की जयधवला टीकाकों शक संवत्‌ ७५५ ( सन्‌ ८३७ ६०) मे समाप्त किया। उती प्रकार उनके शिष्य गुगभद्वने डनकी स्युके पश्चात्‌ उनके महापुराणको शक सं° ८१९ ( सन्‌ ८९७ स्वी ) से कछ पूं पूणं किया | वे पचस्तूपान्वय नामक मुनि सम्प्रदायके सदस्य थे । इसी सम्प्रदायमे गुहनन्दी, शषभनन्दी, चन्द्रसेन, आयंनन्दी भौर वीरसेन भी हुए थे। इस पंचस्तृपान्वयका मुख्य केन्द्र किसी समय उच्तर-पूवें भारतमें था। अनुसमानतः हसी अन्वयके सुनि जैन कम-सिद्धान्त सम्बन्धी ज्ञानके सबसे बढ़े संरक्षक थे । वे राजपूताना भौर गुजरात होते हुए दक्षिण भारतमें श्रवणबेल्गुल तक पहुँचे । वे जहाँ गये वहाँ अपने परम्परागत कर्मसिद्धान्तके ज्ञानकों छेते गये, और कठोर तपस्याके घामिक सार्गंका भी अनुसरण करते रहे | बीरसेन॑ और जिनसेनने ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त की कि उनके पश्चात उनका सुनिसम्प्रदाय पंच + स्तृपान्वयके स्थानपर सेनानवय अथवा सेनगणके नामसे अधिक प्रसिद्ध हो गया। ০ जिनसेनका कार राजनैतिक स्थैय॑ और समृद्धि एवं शास्त्रीय समुन्नतिका युग था। उनके समकाछीन नरेश राष्ट्रकूटंशी जगसंग और नृपतुड़ अपरनाम अमोधवर्ष ( सन्‌ ८३७५--८७७ ) थे । क्री राजधानी मान्यसे थी जहाँ विद्वानॉका अच्छा समागम हुआ करता था। अ्रमोषयर्ष केबल एक प्रवछ सन्नाट्‌ ही नहीं ये, किन्तु वे साहित्यके आाश्रयदाता भी थे। स्वयं भी दे शास्त्रीय चर्चामें रुचि और साहित्यिक योग्यता रखते ये । अलंकार-विवयक पुक कल्नइस्लंथ 'कविराजमार्ग! उनकी हृति




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