कुमार सम्भव का | Kumar Sambhav Ka

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Kumar Sambhav Ka by महावीरप्रसाद दिवेदी - Mhavirprsad Divedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मन ष सघथा झमुरूप थो। और की तो नाव ही नहीं चड़े बड़े ऋषि बरर सुनि मीं इसका सम्मान करते थे। इसी से खुमेरु को साथो हिमालय ने सेना हो की पत्नी-पद के खिए उपयुक्ध समझा 1 युवती मेना बहुत ही रूपबती थी । हिमालय के घर झ्स्ते पर सडुत समय सनक वह आनन्द से रहती रही 1 इस्सक वाद चहद गर्भवती । सेना के पहले गर्म से मेनाक नातक् सामी पुर उत्पन्न हुआ । उसके गोयव का अलुसान इनने ही से कर लीजिए कि नाथों की कम्याओओं से तो उस का चिधाइ हुआ और रलाकर समुद्र से उसकी मित्रता हुई 1 कद्ध हुए इन्द्र ने अपने बज से और सब पथतों के पट्ट तो काट परम्तु सेनाक उसके वजाघात से साफ बच गया । उसे इन्द्र के कुलिश-अहार का कर ने सहन करना पड़ । मैसाक को छोड़ कर यह सौसाग्य और किसी पर्वत को नहीं मात छा 1 अपने पिता दक्त घजापति के द्वारा अनंत होने पर की पहली पद्मी सती ने झपन पिता हो की में याणियों के सदृश अपना शरीर छोड़ दिया था 1 नया जन्म लेने के लिए उसने मैसाक के कुछ बड़े होने पर सेना के गे सें प्रवेश किया । नीति के प्रयोग में यदि उम्सादरूपी गुण से काम लिया जाय तो नीति चिगडती भी नहीं और उससे सम्पत्ति की थी उत्पत्ति होसी है। जिख तरह पसे गुण का योग फाकर नीति से सम्पत्ति उत्पन्न होती है उसी तर पवेतो के राजा दिसालय के योग से सेना के सदायार को घका सी न सगा और उससे कल्याणवती क्या के रूप में सती का जन्म भी दुआ । जिस दिन उस कन्या का जन्म हुआ उस दिन जितने शरीरधारी स्थावर सौर जड्गम थे सभी के ानन्द की सीमा न रदी। दिशाओं ने निसलता धारण




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