जिनशतक | Jinshatak

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Jinshatak  by लालारामजी शास्त्री - Lalaramji Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पर स्याद्वादग्रथमारा । गतप्रत्याशताईः | भासते विभुतास्तोना ना स्तोता भुवि ते सभाः। 1 রসি याशश्रिताःस्तुत गीत्या बु नुत्या गीतस्तुताःधिया॥१०॥ भासते इति.!.अस्य छाकस्याद्धं पक्त्याकारेण विलिख्य क्रमेण पठनीयम्‌ । कमपटठे यान्यक्षराणि विपरतपोठेपि तन्येवाक्षराणि यतस्ततो मतप्रत्यागताद्ध । एव द्वितीयार्डमपि योज्यम्‌ । হন ভব गतप्रत्यागताद्धश्टोकाः दु्टव्या | भासते शोभेत । নিলীলাঘ विभुता स्वामित्वम्‌ । तया ई अस्ता क्षि्ा. ऊना न्यूना यकामिः ता विभुतास्ताना । ना पुरुष । स्तोता स्तुते क्तौ । भुवि लोके । तेतव | खमा समवसृती , शसन्ता दृष्ट्या । या यद्‌ टग्रन्तस्य प्रयोग । भरिता आश्रिता । हे स्तुत पूजित । गीत्या गेयेन । नु वितके । नृत्या स्तवेन गौताश्च ताः स्तुताश्च गीतस्तुता । भरिया ल्क्म्या । भिया आश्रिता या सभा. गीत्या गीताः नुत्या स्तुता सजाता ना स्तोता पुरूष, मावते ॥ १० ॥ हे पूज्य ' जो पुरुष आपकी स्तुति करता है, वह तीर्थकर पद पाकर इस लोकसे आपकी समाल उस समवसरणरूप सभाको सुशोभित करता है कि जो सभा अतरगबहिरग छक्ष्मासे सुशो- भित है तथा जिसका वणेन बड़े वद स्तोतरोसे किया जाता है और इन्द्र चक्रवर्ती आदि बड़े २ परुषोके समस्कार करनेसे पृल्य है तथा जिसने अन्य सब सभाये अस्त (मात) करदी ह ॥ १०॥




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