जैन कर्म सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन | Jain Karam Sidhant Ka Tulnatamk Adhyayan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Jain Karam Sidhant Ka Tulnatamk Adhyayan by सागरमल जैन - Sagarmal Jain

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about सागरमल जैन - Sagarmal Jain

Add Infomation AboutSagarmal Jain

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
८ जैन कर्म छिद्धान्त : एक तुलवात्मक अध्ययन सारभूत बातों को प्रस्तुत करना ही पर्याप्त है। सामान्यतया व्यक्ति की सुख-दुःखात्मक अनुभूति का आधार काल नहीं हो सकता, क्योंकि यदि काल ही एकमात्र कारण है तो एक ही समय में एक व्यक्ति सुखो और दूसरा व्यक्ति दुःखी नहीं हो सकता । फिर अचेतन काल हमारी सुख-दुःखात्मक चेतन भअवस्थाओं का कारण कैसे हो सकता है ? यदि यह मानें कि व्यक्ति की सदु-असद्‌ प्रवृत्तियों का कारण या प्रेरक तत्त्व स्वभाव हैं और हम उसका अतिक्रमण नहीं कर सकते हैं, तो नैतिक सुध्रार, नैतिक प्रगति कैसे होगी ? दस्पु अंगुलिमाल भिक्षु अंगुलिमाल में नहीं बदर सकेगा । नियतिवादको स्वीकारक रने पर भी जीवन में प्रयत्न या पुरुषार्थ का कोई मूल्य नहीं रह जायेगा ! इसी प्रकार ईश्वर को ही प्रेरक या कारण मानने पर व्यक्ति की शुभाशुभ प्रवृत्तियों के लिए प्रशंसा या निन्‍दा का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। यदि ईश्वर ही वैयक्तिक विभिन्‍नताओं का कारण हैँ तो फिर वह न्यायी नहों कहा जा सकेगा। पूर्व-निर्देशित इन विभिन्‍न वादों में कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद और ईइ्वरवाद इसलिए भी अस्वीकार्य हं कि इनमें कारण को बाह्य माना गया, लेकिन कारण-प्रत्यय को जीवात्मा से बाह्य मानने पर निर्धारणवाद मानना पड़ेगा और निर्धारणवाद या आत्मा की चयन सम्बन्धी परतन्त्रता में नैतिक उत्तरदायित्व का कोई अर्थं ही नहीं रह्‌ जायेगा । प्रकृति- वाद को मानने पर आत्मा को अक्रिय या कूटस्थ मानता पड़ेगा, जो नैतिक मान्यता के अनुकूल सिद्ध नहीं होगा । उसमें आत्मा के बन्धन और मुक्ति की व्याख्या सम्भव नहीं । महाभूतो को कारण मानने पर देहात्मवाद या उच्छेदवाद को स्वीकार करना होगा, लेकिन आत्मा के स्थायी अस्तित्व के अभाव में कर्मफल व्यतिक्रम और नैतिक प्रगति की धारणा का कोई अर्थं नहीं रहेगा । कृतप्रणाश्च ओर भङृतभोग की समस्या उत्पन्न हो जायेगी, साथ हा भौतिकवादी दृष्टि भोगवाद की भोर प्रवृत्त करेगी ओर जीवन के उच्च मूल्यों का कोई अर्थ नहीं रहेगा । यदृच्छावाद को स्वीकार करने पर सबकुछ संयोग पर निर्भर होगा, लेकिन संयोग या अहेतुकता भी न॑तिक जीवन की दृष्टि से « समोचीन नहीं है । नैतिक जीवन में एक व्यवस्था तथा क्रम है, जिसे भहेतुवादी नहीं समझा सकता । इन सभी सिद्धान्तों की उपयुक्त अक्षमताओं को ध्यान में रखते हुए जैन दर्शन ने कर्म-सिद्धान्त की स्थापना को । जेन विचारधारा ने संसार की प्रक्रिया को अनादि मानते हुए जीवों के सुख-दुःख एवं उनको वैयक्तिक विभिन्‍नताओं का कारण कर्म को माना | भगवतीसूच में महावीर स्पष्ट कहते हैं कि जीव स्वकृत सुख-दु.ख का भोग करता है, परक्ृत का नहीं ।' फिर भी जैन कर्म-सिद्धान्त की विशेषता यह है कि वह अपने कर्म-सिद्धान्त में उपर्युक्त विभिन्‍न मतों को यथोचित स्थान दे देता हूँ | जैन कर्म- सिद्धान्त में कालवाद का स्थान इस रूप में कि कमं का फलदान उसके विपाक-काल पर ही निर्भर होता ह । प्रत्येक कर्म की अपने विपाक की दृष्टि से एक नियत काल- ~ ------- ০২০০ ३१. भगवती यंत्र, १२६४०




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now