ऋग्वेद संहिता | Rigwed Sanhita

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४ अ०, ५ म0, १ अध्या०, १ अनु>?) सटीक ऋग्वेद-सहिता ५ १९ सुत्त श्रन्नि देवता | अत्रिके अपत्य सुतम्भर ऋषि | जयती छत्द | जनस्य गोपा अ्रजनिष्ट जाशविरगिनिः सुदक्षः सुविताय नव्यसे | घृतप्रतीको बृहता दिविस्पशा द्यमह्िभाति भरतेभ्यः शुचिः ॥१॥ यज्ञस्थ केतु प्रथमं पुरोहितमग्नि नरस्त्रिषघस्थे समोधिरे । इन्द्र ण॒ देवेः सरथं स बहिंषि सीदन्नि होता यजथाय सुक्रनः ॥२॥ असमृष्टो जायसे मात्रोः शुचिम न्द्रः कविरुद्तिष्ठो विवस्वतः । पतेन स्वारथयन्नम्न ब्राहूतधूमस्त केनुरभवदिविश्रितः ॥३॥ अग्निना यक्ञमुपवतु साधुयराग्नि नरा विभरन्ते रेष । अग्निदृतो श्रभवद्धव्यवाहनोग्नि इणाना वृणत कविक्रनुम ॥४॥ १ लोगोंके रक्षक, सदा प्रबुद्ध ओर सबके द्वारा स्छाप्रनीय बलवाले अश्नि छोगोंके नूतन कत्याणके लिये उत्पन्न हुए हैं | घृत द्वारा प्रज्वलित दोनेपर तेजोयुक्त और शुद्ध अश्नि ऋत्विकोंक लिये य॒ निमान्‌ होकर प्रकाशित होते हैें। २ अश्नि यज्ञके केतुस्वरूप हैं अर्थात्‌ प्रज्ञापक हैं। अश्नि यजमानों द्वारा पुरस्क्तत होते हे- पुरो आगमे स्थापित होते हें । अग्नि इन्द्रादि देवोंके समकक्ष है | ऋत्विकोने तीन स्थानोमें अग्निकों समिद्ध किया था। शोभनकर्मा और देवोंके आह्वानकारी अश्नवि उस कुशयुक्त स्थानपर यक्षके लिये प्रतिप्ठित दूष भे) ३ हे अश्म, तुम जननी स्वरूप अरणिद्धयसे, निविघ्च होकर, जन्म ग्रहण करते हां। तुम पवित्र, कवि ओर मधावी हो । तुम यजमानोंसे उदित होते हो । पू महपि्यानि घन द्वारा तुम्द बद्धित किया था । हे हव्यवाहक, तुम्हारा अन्नरिक्षन्यापी धूम केतुस्वरूप ह-तुम्टागा प्रज्ञापक या अनुमापरक ই । ७ सब पुरुषार्थोके साधक अभ्नि हमार यज्ञम अगामन कों। मनुप्य प्रतिगृहमें अश्नि-संस्थापन करत हैः । हव्यवाहक अच्चि दैवोके दूत-स्वरूप टै । यक्ञसम्पादक कहकर लोक अश्विका सम्भजन करते हैं |




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