असुर्य उपनिवेश | Asuriya Upnivesh

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Asuriya Upnivesh by चंद्रशेखर - Chandrashekharशंकर लाल - Shankar Lal

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शंकर लाल - Shankar Lal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मह कोई और है। “कौत ?” নী 0” अच्छा, विश्वंभर बाबू ! বতিন |” “कल रात तो गरमी पडी 17**मगर आप वहुत जल्दी सो गये ।/ जयराम बाबू खों-खो कर खास उठे | शायद इसी ढग से हसे क्या ! इसके लिए वे सचमुच तैयार न थे। वस सिगरेट मुह से निकाल कर फेंक दी । हवा में घुआ बुझता-बुझता लग रहा था 1 विश्वभर भी उनकी चुप्पी से संक्रमित होकर और कुछ नहीं कह पा रहा था। धुआ कुछ सरक गया । बाहर के उजाले मे विश्वभर को देखकर, उनके शोकेसभा जैसे चेहरे के बीच काली पट्टी जैसी मूछे देखकर जयराम वाहर का आदमी वनने की चेष्टा कर रहे ये। उस कोशिश का फल शायद उनके चेहरे पर दिख गया, वरना विश्वंभर इतना विस्मित क्यों होता ? *** सिगरेटों के इतने टुकड़े एक साथ उसने पहले कभी नही देखे। एक रात न सोओ तो आंखों के नीचे इतना गहरा काला दाग उभरना उसने कभी न देखा था, और न ही उदास हंसी का यह मुर्दा जुलूस कभी देखा । “आप जयराम बाबू ! कल शायद खाना नहीं खाया ।““'लगता है रात सोये भी नही ? ***कल यही सोचकर आवाज लगाथी। वरना होने पर क्या कुछ ला ही देता । मगर देखा आपका कमरा तो अधेरा है। शायद थककर सो गये इसीलिए उठाया नही । मगर आपने कल न खाया है और न आप सोये हैं । जयराम सिर्फ हँस दिये । आंखें शायद कह रही हैं--“ओह समझा ।* ' मगर सचमुच इससे कुछ फरक पड़ता है? *“छोडो ४४ “विश्वंभर वाबू यह रिवशा बिकवा देते 1” विश्वभर समझ गया कि उन्होने विलकुल उसकी वात नही सुनी है। वरना बिना बात के अचानक यों रिक्शा की बात क्यों उठाते । असूरयंउपनिवेश / ७




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