मूर्ती पूजा का प्राचीन इतिहास | Moorti Puja Ka Prachin Itihas
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15.8 MB
कुल पष्ठ :
576
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मरुघरोद्धारक एवं श्रोसचश स्थापक
जैनाचाय
श्रीमदू रलप्रभसूरीश्वरजी महाराज
रा पृश्नी का पवित्र जन्म विद्याघर वंश के नायक महदा-
राजा महेन्द्रचूढ़ की पटराज्ञी सती शिरोमणि
लक्ष्मीदेवी की रत्नकुक्ति से वीर निवाण के प्रथम चप प्रथम मास
के पाँचवे दिन में हुआ था । 'छापका शुभ नाम रलचूड़ रक्खा
गया ! आपका घराना प्रारंभ से ही जैन धर्म का परमोपासक
था | श्ापके पूर्वजों में एक चन्द्रचूड़ नामक मद्दान् पराक्रमी
नरेश हुए, जो भगवान रामचन्द्र और लक्षण के समसामयिक
थे । जच वीर रामचन्द्र लचमण ने ल&्का पर चढ़ाई की थी, तब
चन्ट्रचूड़ से भी श्रापका साथ दिया रावण के साथ युद्ध
कर विजय प्राप्त करने में त्राप भी शरीक दी थे । छान्य विजयी
पुरुषों ने लड्ठा की लूट में जब रत्नादिक कीमती पार्थिव द्रव्य
टूटा तब चंद्रचूड़ ने रावण के घरेछू देरासर से एक नीले पन्ने की
अलौकिक, साधिप्यिठ, महदाप्रभाविक एवं चमत्करिक चिन्तामणि
पाधनाथ की मूति प्राप्त की और उस मूर्ति
की त्रिकोल पूजा करने लग गये । राजा चन्द्रचूड़ ने अपनी विद्य-
मानता में ऐसा चिश्चय कर दिया था कि मेरे पीछे इस सिद्दासन
पर जो राजा होगे वे मेरे सहश दी इस पवित्र मूत्ति की पूजा
कर आत्म-कल्याण करते रहेगे, ठीक इसी नियमाइचुसार बंश
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