द्वाभा | Dwabha

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Dwabha by प्रभाकर माचवे - Prabhakar Machwe

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इभा १४ लिए. जमा हुए हैं | डिबेट करने के लिए नहीं। देखिये देखिये, वह विद्या कहाँ से इतने सारे आम के मौर तोड़कर लाई ।” श्री: बेबी भी |? और फिर सब हसी ठठूठे में डर गये । मीना और शायर शतरंज खेलने लगे | बच्चो ने पेड़ोपर चढ़ना और कुृदना शुरू किया । तब, ताश मे मन नही लगता, कहकर आभा और सत्यकाम टहलते हुए अमराई के एक धने छायादार हिस्से की ओर बढ़ गये जहाँ नदी के पानी से आम की डाले छूती थी। और उसके बाद पता नहीं कहाँ खो गये । बहुत देर तक वे नही लौटे । दिन चढ़ आया । और खाने के वक्त सब की तलाश होती रही. तब वे बड़ी खोज के बाद मिल्ले पास के एक देहात में | खाने के बाद मीना ने एक गाना गाया | कोई द्खभरा गाना था, जो उसकी अपनी भाषा में था। उसका स्वर बड़ा ददं भराथा | श्रौर गाने का भाव जो उसने हरी पटी हिन्दी पिल श्रंगरेजी मे बताया वह्‌ इस तरह से थ : “पाना कि तुम मुझे नहीं चाहते, फिर भी मेरे चाहने को तुम कैसे रोक सकते हो. «« “बनतुलसी की मद्रिसुगध कॉटे की बागड से नही रुकती | “माना कि तुमने अपने दिल से मुझे निकाल दिया है, फिर भी मेरे दिल मे जो म्हारी तस्वीर है वह पक्के रंगोम बनी है और वह आंसुओं से नहीं . घुलती । “यह प्तिमा तुम्हारी उपेक्षा के घन की चोट से भी नहीं टूटेगी। क्योकि यह प्रतिमा सप्तधातु कीं है । विरह की आगसे यह गलती नहीं, और निखरी है > गाना सुनकर श्रलताफ मे, जिसम सौदयं की सूछूमता ग्रहण करने का লাহা मोथरा हो चुका था, वही सस्ती हँसी हँसकर चार पंक्तियाँ ग़म पर पढ़ दीं । शायद वे ग़ालिब की थीं और खासी चुभती हुई थीं। यों पिकनिक पूरी हुईं। और सॉक के कुटपुटे में सब लोग लौटे ।




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