साहित्यिक निबंध | Sahityik Nibandh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
318 MB
कुल पष्ठ :
744
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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লিপি गैर विजयपालरासो के समान इतिहास के
इतनी सरस हैं कि वे हम्मी ररासो ॥ वि
लिए स्वीकार हो सकती हैं ।दविवेदीजी के मतानुसार धामिक प्र रखा या / ध्या-
हिमिक उपदेश, यदि उनमें सरसता है तो, काव्य के लिए बावत नहीं समझे जाने
चाहिए । इसलिए स्वयंभू, चतुमु ख, पुष्यदंत, भौर धनपाल जैसे जन कवियों की
तियो की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए । श्राचार्य शुक्ल ते इन्हें धामिक मानकर
इनकी अवहेलना की है। यदि धाभिक दृष्टिकोण को हम काव्य के लिए बाधक
समझ लें तो हिवेदीजी के कथनानुसार हमें रामचरितमानस, परावत सहि
संपूर्ण भक्तिसाहित्य से भी हाथ धोना पड़ेगा ।
श्रादिकाल में राज्याश्रित कवियों ने श्रपने ग्रा्रयदाताओों की प्रशंसा करते
तमय उसमे धाक पुट भी दिया है । चेंद ने इसी कारण अपने ग्रन्थ में
दशावतारचरित्त का वर्णन किया है । कीतिलता के कवि से भी श्सका मोह
नहीं छूट सका है । उस युग में जन-साहित्य की श्रपेक्षा धार्मिक साहित्य ॥ का
संरक्षण अधिक सावधानी से किया गया था, इससे उसकी मात्रा श्रधिक हैँ ।
प्रायः इन धर्मग्रन्थों के श्रावरण में सुन्दर कवित्व का विकास हुझा दे । तत्का
लीन काव्यडूपों और काव्यविषयों के अ्रध्ययत् के लिए इनकी उपयोगिता
प्रसंदिग्ध है। भ्रतः आदि काल की सामग्री मे इन पुस्तकों कौ गणना अव्य
होनी चाहिए । |
अब शुक्लजी द्वारा विवेचित बारह रचनाश्रों की प्रामाणिकता की विवेचना
कर लेना भी अत्यन्त आवश्यक हो उठा है क्योकि इनमे से श्रनेक श्रप्रामारिक
सिद्ध हो छुकी हैं । दलपति विजय के खुमान रासो में प्रतापसिंहं तके का
वर्णन देखकर उन्होंने अनुमान कर लिया था कि इसका वर्तमान रूप নাল
की सत्रहवीं शताब्दी में प्राप्त हुआ होगा ।/ इधर अ्रगरचंद नाहटा ने दलपति
को परवर्ती कवि सिद्ध कर दिया है। मोतीलाल मेवारिया का कहना मर करि
“हिन्दी के विद्वानों ने इसका ( दलपति ) मेवाड़ के राव खुम्माण का सम-
कालीन होना अनुमानित किया है, जो गलत है। वास्तव में इसका रचनाकाल
सम्बत् १७३० और १७६० के मध्य में है। इतत प्रकार खुमानरासों श्रदा रहवीं
शताब्दी कां ग्रन्थ प्रमारित होता है । नरपति ना्हु कै वीसलदेव বালী” লা
विषय में भी इसी प्रकार का सदेह प्रकट किया गया है। मेनारियाजी ने नाल्ह
को १६ वीं शताब्दी .का नरपति कवि माना है। शुक्जजी को भी यह ग्रन्थ
प्रधिक ग्रहणीय नरी प्रतीत हुआ था । शाज्भ धर के 'हम्मीर रासो' को भी
उनकी कृति नहीं माना जाता । प्राकृत-पेंगलम्' के शुवलजी को कई ऐसे प
मिले विन्द उन्होंने 'हम्मीर रासो' के पद मान लिया । क्यों और कंसे माना,
.._ इसका उन्होंने कोई कारण नहीं बताया । परन्तु राहुलजी ने उन्हीं पदों को
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