राजारानी | Raja Rani
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
158
श्रेणी :
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मुरारीदास अग्रवाल - Muraridas Agrawal
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रवीन्द्रनाथ टैगोर - Ravindranath Tagore
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)॥ प्रथम शक् |
क
ुस्तकगद दै, क्योकि श्रापकी नोल कौ लाली देखकर उसे
भी मै खप्र यी तरह भूल জানা ্ট1 . शा
विन्रम- नीं सखे ! उसो मत्त, मे कु न करह्गा । त॒म
अपनी नयी दिद्या का परिचय दे डालो ।
देव-- सुनिये । कवि. भद हरि जी कहते ই:
^ नारियो के वचन म मधु, है हृदय मे श्रति गरल ।
श्रधरः से दतीं सुधा, चित्त म लगाती है अनल ॥ #
विद्मम--फिर वही पुरानी घात !
देव--सचमुच पुरानी है, पर क्या फर्रू महाराज, जितनी
पुस्तक खोलता हैं, सब में यही एक बड़ी बात दिखाई पड़ती
ऐ । मालूम होता है, जितने पराचीन परिडत थे, वे सबके सब
श्रपनी शियतमाओं को लेकर एक क्षण भी खचित नहीं रहते
थे। पर श्राश्वर्य तो यह है कि जिनकी ब्राह्मणी पर-पुरुष की
खोज में इस प्रकार घृमा करती थीं, वे एकाग्र मनसे सुन्दर-
सुन्दर छन्दों मे काव्य की रचना कैसे करते थे !
विन्म--भूठा अविश्वास था ! वे जान-बवुऋकर अपने को
धोखा देते थे। छ्ुद्र हृदय का प्रे म अत्यन्त विश्वास से सतत
अर जडब॒त् हो जाता है । इसी से उसे मिथ्या अधिश्वास करते
हुए भी जयाना पड़ता है । उधर देखो, वह ढेर का ढेर राज-
काज का दास लिए हुए मच्री आ रहे टै)! यहा सेमै श्रव
भागता है ।
दच--हों, हों, भायिये, भागिये, अ्रन्तःपुर मे जाकर रानी के
राज्य में श्राथय लीजिये | अधूरा राज-काज को वाहर ही पड़ा
पि
> मपु तिष्ट वाचि योपिता, हदि एलाहलमेव फैवलम् ।
अत्तएव निपीय्ते5यरो, दृदय मुिमिरेव त्तादयते ॥
( भुरि ध्यक्षार शत्तक )
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