राजारानी | Raja Rani

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मुरारीदास अग्रवाल - Muraridas Agrawal

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रवीन्द्रनाथ टैगोर - Ravindranath Tagore

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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॥ प्रथम शक्‌ | क ुस्तकगद दै, क्योकि श्रापकी नोल कौ लाली देखकर उसे भी मै खप्र यी तरह भूल জানা ্ট1 . शा विन्रम- नीं सखे ! उसो मत्त, मे कु न करह्गा । त॒म अपनी नयी दिद्या का परिचय दे डालो । देव-- सुनिये । कवि. भद हरि जी कहते ই: ^ नारियो के वचन म मधु, है हृदय मे श्रति गरल । श्रधरः से दतीं सुधा, चित्त म लगाती है अनल ॥ # विद्मम--फिर वही पुरानी घात ! देव--सचमुच पुरानी है, पर क्या फर्रू महाराज, जितनी पुस्तक खोलता हैं, सब में यही एक बड़ी बात दिखाई पड़ती ऐ । मालूम होता है, जितने पराचीन परिडत थे, वे सबके सब श्रपनी शियतमाओं को लेकर एक क्षण भी खचित नहीं रहते थे। पर श्राश्वर्य तो यह है कि जिनकी ब्राह्मणी पर-पुरुष की खोज में इस प्रकार घृमा करती थीं, वे एकाग्र मनसे सुन्दर- सुन्दर छन्दों मे काव्य की रचना कैसे करते थे ! विन्म--भूठा अविश्वास था ! वे जान-बवुऋकर अपने को धोखा देते थे। छ्ुद्र हृदय का प्रे म अत्यन्त विश्वास से सतत अर जडब॒त्‌ हो जाता है । इसी से उसे मिथ्या अधिश्वास करते हुए भी जयाना पड़ता है । उधर देखो, वह ढेर का ढेर राज- काज का दास लिए हुए मच्री आ रहे टै)! यहा सेमै श्रव भागता है । दच--हों, हों, भायिये, भागिये, अ्रन्तःपुर मे जाकर रानी के राज्य में श्राथय लीजिये | अधूरा राज-काज को वाहर ही पड़ा पि > मपु तिष्ट वाचि योपिता, हदि एलाहलमेव फैवलम्‌ । अत्तएव निपीय्ते5यरो, दृदय मुिमिरेव त्तादयते ॥ ( भुरि ध्यक्षार शत्तक )




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