आस्था के चरण | Astha Ke Charan

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Astha Ke Charan by जुगेंद्र-jugendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ इतिहास वलि लेख में यद्यपि मैंने 'मिश्रबंधु-विनोद' के साथ अधिक-से-प्रधिक न्याय करने का प्रयास किया था, फिर भी पं० शुकदेवविहारी मिश्र ने बाबू गुलावराय से शिकायत की थी कि आपके पत्र में हमारे इतिहास की निंदा की गईं है। टीक्ाकारो के प्रसंग मे मैंने “विहारी-रत्नाकर' को सर्वाधिक वैज्ञानिक ओर 'संजीवन भाष्य' को सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक टीका माना था। इन दोनो लेखो को, कदाचित्‌ इनके सक्षिप्त रूप के कारण, मेरे किसी निवघ-संग्रहं मे स्थान नही मिला । हिंदी मे एम० ए० करने के बाद सन्‌ १६३७ के मध्य में मैंने अपने मन की प्रेरणा से एक स्वतंत्र तिवध लिखा जिसका शीषंक था 'छायावाद' । यही वास्तव में ঈহা 'সঘল समीक्षात्मक' निबंध था . इसमे एक ओर जहा विषय-प्रतिपादन के सवंध मे पूर्ण सतकेता बरती गयी थी, वहा निरूपण-शेली ओर रूप-सौष्ठव पर भी उचित ध्यान दिया गया था । यह निवध उस समय 'हस' मे प्रकाशित हुआ था जब प्रेमचंद जी की मृत्यु के वाद जैनेन्द्र जी कुछ दिनो तक उसका संपादन कर रहे थे । आगे चलकर यह 'सुमिवानदन पंत” पुस्तक के प्रथम परिच्छेद के रूप में प्रकाशित हुआ ओर बाद मे सन्‌ १६४३ में 'छायावाद की परिभाषा” नाम से जब इसी विषय पर मेरा एक अन्य निवध प्रकाशमेभ्रा गया तो स्वतत्र निवंधके रूपमे इस पहली रचना का अस्तित्व ही समाप्त हो गया । भाज यह्‌ “सुमित्रानंदन पत' की भूमिजाकेल्पमे ही जीवित है--किसी निवध-सश्रह मे इसका समावेश नही है । 'गास्था के चरण' मे सकलित निवघो मे सवसे पहली रचना ই 'साहित्य मे कल्पनां का उपयोग । यह्‌ निघ मेनि सन्‌ १६३६ मे रिचडंस की प्रसिद्ध पुस्तक 'प्रिंसिपल्स ऑफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म' से प्रेरित होकर लिखा था। उस समय रिचडं स भी नये आलोचक ही समे जाते थे । अगरेजी एम० ए० के पाठ्यक्रम भे तो उनका कोई स्थान था ही नही, अपरेज़ी आलो- चना के विकास-क्रम मे या समसामयिक अंगरेजी आलोचना के संदमंमे भी उनका उल्लेख मुणकिल से होता था । पतु माचायं रामचद्र शुक्ल ने साहित्य मे रहस्य-पवृत्ति के विरुद्ध अपने मत का पोषण करने के लिए रिचर्डस के तकों को अत्यंत प्रामाणिक रूप से उद्धत कर हिंदी-पाठक के मन मे उनके प्रति एक विष्ट लोकर्षण उत्यन्न कर दिया था । मुझे स्वय शुक्ल जी का यह मत ग्राह्म नही था कि रहस्य-प्रव॒त्ति काव्य के सहज धर्म के अनुकूल नही है, और इस दृष्टि से रिचर्ड्स के प्रति भी कोई विशेष मंश्रम का भाव मेरे सन से नही था। फिर भी, मैं उनके ग्रय को पढठना चाहता था और एक दिन जब किसी पुस्तक-विक्रेता के यहा उप्तकी एक पुरानी प्रति मुझे मिल गई तो में कॉलेज की लाइत्नेरी के लिए उसे खरीद लाया और अवकाश मिलते ही उसके अध्ययन मे प्रवृत्त हो गया। विषय एवं शैली दोनो की ही दृष्टि से पुस्तक कुछ कठिन है ओर मैने अत्यत मनोयोग के साथ उसका विधिवत्‌ पारायण किया । उसके हाशियों पर मैंने कुछ सकेत-शब्द भी स्थान-स्थान पर अपनी तथा मन्य पाठो की सुविधा के लिए लिस दिए थे। यह प्रति श्री राम कॉलेज ऑफ कॉम की लाइब्रेरी मे थी---आज है या नही, में नही जानता । पर आठ-दस वर्ष पूवं जव डक्टर भई० ए० रिचड म दिल्ली विश्वविद्यालय में आए थे ओर में उनसे बात कर रहा था तो कॉलेज के एक पुराने




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