क्रोध - विजय | Krodh Vijay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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माव 5 जो विषया स्तन तजी सूढ़ ताहि लपटात । ज्यों नर डारत वसन कर स्वान-स्वाद सों खात ॥। -एरहिमन विलास अर्थात्‌ स्तजन जिन विषयों को विष जानकर ठुकराते हैं उन्हें हो मूखं लोग वड़े चांव से गले गाते हैं । जैसे जिस विषैले भोजन को मनुष्य के के द्वारा बाहर निकाल देता है उश्ी को कुत्ता स्वाद ले-लेकर खाता है । पुराने सन्तों तथा कवियों के भावों और भाव-जनित विषयों के सम्बन्ध में ऐसे विचार पढ़-सुवकर आधुनिक मनुष्य का दुविधा में पड़ना स्वाभाविक है । वह सोचने लगता हैं--क्या काम के थिना सुष्टि चल सकती है क्या क्रोध के बिना कान चछ सकता है क्या लोभ के बिना अपना तथा अपनों का निर्वाह हो सकता है ? इत्यादि । यदि भावों के बिना संसार के सब काम-धन्धघे सुचारु रूप से चल सकते हैं तो जीव-जन्तुओं के मन में काम क्रोध आदि भाव उत्पन्न ही क्यों होते हैं? हमारे विचार में विचारों के समान भावों का स्थान भी जीवन में महत्त्वपूर्ण रहा है और रहेगा । जिज्ञासा का भाव न होता दो मनुष्य जंगली जीव ही बना रहता । वल्कल के ही वस्त्र पहनकर तथा जंगलों के ही फल-मूल खाकर ही संसार से विदा हो जाता । परन्तु उत्सुकता-वश उसने जल स्थल और नभस्तल के असंख्य रहस्य खोजकर जीवन को कितना सुखमय बना लिया है । पहले वह संसार को मिथ्या और दुःखमय मानकर मृत्यु के पश्चात्‌ सुबमय स्वर्ग और आनन्दमय अनत्त मोक्ष की प्राप्ति की इच्छा किया करता था । आज उसने संसार को ही इतना सुखमय तथा आनन्दमय वना लिया हैं हक स्वर्ग और अपवर्ग मोक्ष उसे प्राचीनों की कल्पनायें ही प्रतीत होते हैं । वात्सल्य की भावना से भरकर माता-पिता बच्चों को कण्ठ से लगाकर दिव्यसुख का अनुभव करते हैं । मोह के वश में होकर ही दरिद्र जननी-जनक भी बीमार बच्चे की इतनी अमूल्य सेवा-शुक्षूषा करते हैं जितनी अस्पतालों की पर्याप्त वेतन पाने वाली परिचारिकाएं भी नहीं करतीं । पुण्य की भावना से प्रेरित होकर वृद्ध स्त्रियाँ भी लाठी टेक-टेक कर अमरनाथ और बद्री-केदार की उन उत्तंग चोटियों पर जा चढ़ती हैं जिन्हें भाव-हीन जन व्यर्थ समझकर आँख उठाकर देखना भी नहीं चाहते । स्वदेश-प्रेम के भाव से भरकर लाखों स्त्री-पुरुष अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र करने वा रखने के लिए




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