सिंहल - विजय | Sinhal Vijay

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Sinhal Vijay by द्विजेन्द्रलाल राय - Dvijendralal Ray

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दुन्नय । ] प्रथम अंक । ् कि कि वि कद ० हि फि अषि शिल्प िकथिलथि हॉप्नचकच मच अंक ४ #« नीच कह अधि हक ला लि हध नच लाभ # #। ७ अचकिा लक # के हपिकणि के नध, हमला बाप ४ कह : और तरफ देख सकते हैं ? केवल इन दोनों . आँखोंकी तरफ देखो | फिर तुम्हें ओर कुछ देखनेकी आवश्यकता ही न. रह जायगी । जल्दी यह समझना कठिन है कि ये दोनों अँखें कया हें-मीन हैं, या खंजन हैं, या हरिनी हैं । और फिर यह नाक । ऐसी नाक कहीं देखी है ? और हँसी ( हँसकर )--आह में मर गई ! सुरमा--वाह, रूपका इतना गुमान ! थ कीठा--यह तो हुआ रूपका गुमान, और यदि गुणका गुमान करूँ तो तुम्हें माठूम हो जाय कि बात क्या है ! सुरंमा--जरा ग़णके ग़ुमानका भी नमूना देखें । ठीठा--हाँ हाँ देखो । पहले तो विद्या--में अनायास ही तुम्हें सब : कुछ सिखा सकती हूँ । सुरमा--हाँ विद्या है, यह तों में मानती हूँ । लीला--मानना ही पढ़ेंगा । आर फिर इसके बाद गाना-( स्वर . ठीक करके गाती है । ) ठुमरी । मेरी प्यारी वीणे, ऐ प्यारे मम गान । ' कोमल स्वरसे व्यथा निकल कर, ज््याकुल करती पाण ॥ मेरी० ॥ 'णएकी कथा सभी तारोंमें, एकी दुख सो तान । मिला निरादाम कायरपन, औओ हताशइा-अपसान ॥ मेरी० ॥ जाग सके तो जग जा वीणे; और उच्च कर तान । प्राण कँपाती में गाऊँंगी-नये गीत, सच मान ॥ मेरी० ॥ हरे सुरखे गला मिलाकर; करन्दन करूँ महान । ' जेत्रोंके जढ मिल कर होवे, मन-दुखका अवसान ॥ मेरी० ॥ जाग सके तो जग कर बज उठ, ऊँचे राब्द्-विधान । “नूतन स्वर गाकर, करना है मेरे साथ मिलान ॥ मेरी० ॥ है




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