जैन धर्म का अहिंसातत्व | Jain Dharam Ka Ahinsha Tatav

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Jain Dharam Ka Ahinsha Tatav by मुनि जिनविजय - Muni Jinvijay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ) उसे अपने पास बुलाया और नगर पर आई हुई आपत्तिके सम्ब- स्घर्में वया उपाय किया माय इसकी सलाह पूछी | तब दंडनायकने कहा कि यदि महाराणीका सुझ पर विश्वास हो और युद्ध संबंधी पूरी पत्ता मुझे सौंप दी जाय तो मुझे श्रद्ा है कि में अपने देशको शुके हाथसे बारयाल नचा दगा । सामूृके इत तरह उत्साहननक कथनको सुनकर राणी खुश हुईं और युद्ध प्म्बन्धी, संपूणे छत्ता उप्तको देकर युद्धकी घोषणा कर दी। दंडनायक आशभुने उसी क्षण सैनिक सघटनकर लद्ाईफे मेदानमें डेरा किया दूष दिन प्रातःकालसे युझ शुरू. होनेवाला था। पहले दिन सपनी सेनाका जमाव क्ते करते उसे संघ्या होगई । वह व्रतघारी श्रावक था हप्तलिये प्रतिदिन उमय काल प्रतिक्रमण करनेका उप्तको नियम था| संध्याके पड़ने पर प्रतिक्रणक्ा समय हुआ देख उसने कहीं एकांतमें जाकर वेसा करनेका विचार किया | परंतु उस्ती হজ সাম ছা ছি ভন লন उसका वामे अन्यत्र नानां . इच्छित कार्यमें विघ्रर था, इप्तलिये उप्तने वहीं हाथीके होदे पर बेठ ही बेठ एक्ाग्रतापूर्वक प्रतिक्रमण करना हुक कर दिया। जब वह प्रतिक्रमणमें आनेवाले--- जे मे नीवा विराहिया-एगिं- दिया-वेइंदिया ”” इत्यादि पाठका उच्चारण कप्ता था तब किस्ती सेनिकने उसे सुनकर किसी अन्य यफ्से का कि- देखिए जनाब हमारे सेनाधिपति साहब तो दृप्त लद़ाईके मेदानमें भी--- नहां पर शस्राख॒की झनाझन हो रही है मारो मारोकी पुम बुलाई जा रही हैं वशैं---एगिंदिया बेइंदिया कर रहे हैं। नरम नरम सीए खानेवाले ये श्रावक्र साहब क्या बहादुरी बतायेंगे ?




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