सुख की झलक | Sukh Ki Jhalak

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Sukh Ki Jhalak  by कपूरचंद वरैया - Kapoorchand Varaiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[প্র] नहीं की । वह परमात्म जो मोक्ष का दाता है उससे स्वगांदिऋ विभूतिकी इच्छा करना, यद्द बात तो भइया, हमारी समझ नहीं आती । बह तो ऐसा हुआ जेसे करोड़ पति से १०० रु० की चाह करना । घनजयन भनवानकी नाना प्रकारसे स्तुति को । अ्रन्तर्मे यही कहा कि प्रभु मैं आपसे कुद्ध नहीं चाहता। निम्तलिखित शलोकमें धनजय कविने केस! गम्भीर भाव भर दिया है:-- इति स्तुति देव विधाय दैन्याद्‌ वर न याचे त्वमुपेक्षकोसि छ्वाया तङ्‌ सश्रयत' स्वत स्याकश्ायया याचितयात्मलामः। मैं तो यही कहूंगा कि देवाधिदेव अरहन्तदेवसे तो संसार सम्बन्धी किसी भी श्रकारकी इच्छा करना ऐसा ही है जैसा वृन्त के तले बैठकर वृत्तस छायाढी याचना करना। भगवानके स्वरूपकों समभनेका प्रयत्न करो । बढ शान्तमुदरा-यक्त, ससार से विरक्त हितेषी, परमबीतराग और मोक्षलक्ष्मीके भत्ता हे, उनसे किसी भो प्रकारकी कामना मत करो व्ह तो यह बतलाते हैं कि देखो जेसे हमने दीक्षा घारण करके मुक्ति प्राप्त फी वैसा ही तुम भी दीक्षा घारण कर मुक्ति पात्र बनो । लोकमे देखो दीपकसे दोपक जोया जाता है। बड़े महर्षियों की चक्ति है कि पहले दो यह जीब मोहके मंद-उदयमे 'दासोडह'? रूपसे उपासना करता दै, पश्चात्‌ जब कृ अभ्यासकी प्रवलता से महषर हो जाता है, तब सोऽह , सोऽह › रूपसे उपासना करते लग लाता दै । अन्तमं जब उपासना करते करते शुद्ध ध्यान




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