विमल भक्ति संग्रह | Vimal Bhakti Sangrah

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Vimal Bhakti Sangrah  by स्याद्वादमती माताजी - Syadwadamati Mataji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विमल भक्ति संग्रह १३ महाव्रत है । पाप क्रियाओं से निवृत्त होने के लिये महान्‌ पुरुषों ने इनका आचरण किया अथवा ये स्वतः ही महान्‌ द्रत हैं इसलिए ये महाव्रत कहलाते हैं । पाँच समिति-शिष्य ने आचार्य देव से प्रश्न किया-प्रभो ! सम्पूर्ण लोक जीवों से भरा है यहाँ- कधं चरे. कधं चिट्ठटे कधं मासे, कधं सष्ट | कधं भुंजीज्ज भासेज्ज जदौ पावं ভা অর্ক || जदं चरे जदं चिं जद मासे जदंसये | जदं भुजीज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बंधर्ह || कैसे चले, कैसे बैठे. कैसे सोर, वैठे, खां ? जिससे पाप बन्ध न हो । यत्नाचारपूर्वक सब करो । वसुनन्दी आचार्य ने टीका में स्पष्टीकरण किया कि- एवं यत्नेन तिष्ठता यत्नेनासीनेन शयनेन यत्नेन भरंजानेन यत्नेन भाषमाणेन नवं कर्म न बध्यते चिरन्तनं च क्षीयते ततः सर्वथा यत्नाचारेण भवितव्यमिति । यत्नपूर्वक खड होओ, यत्नपूर्वक बैठो, यत्नपूर्वकं खाओ, यत्नपूर्वक बोलो जिससे नवीन कर्म का बन्धन न हो ओर चिरकाल से धे कर्मक्षयको प्राप्त हो इसलिये सर्वथा हे साधो । यत्नाचार से प्रवृत्ति करना चाहिये । महात्रत निवृत्ति रूप ह तथा समिति प्रवृत्ति स्प हैं- “सम्यक प्रवृत्ति को समिति कहते ह । ईर्या, भाषा, एकणा, निक्षेपादान तथा मलमूत्रादि का प्रतिष्ठापन सम्यक्‌ परित्याग ये पाच समिति जिनेन्द्रदेव ने कही हैं । ईर्या समिति-धार्मिक प्रयोजन के निमित्त चार हाथ आगे जमीन देखकर दिवस में प्रासुक मार्ग से जीवों का परिहार करते हुए गमन करना साधु की ईर्यासमिति हँ । भाषा-चुगली, हंसी. कसरत. पर निन्दा, अपनी प्रशंसा ओर विकथा आदि को त्याग कर स्व-पर हितार्थ मित बोलना भाषा समिति हं । एकणा-छयालिस दोवो से रहित शुद्ध, कारण से सहित, मन-वचन-काय व कृत-कारित-अनुमोदना (3 » 3 नक्कोटि) विशुद्ध ओर शीत-उष्ण आदि में समन भाव से भोजन करना निर्दोष एवणा समिति है । आदाननिश्चेपण-ज्ञान के उपकतरण शास्त्रादि, संयम का उपकरण पिच्छी,




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