दिक्षाकुमारी का प्रवास | Dikshakumari Ka Prawas
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
342
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)क्रोधित होकर बोली “मुनियों ! क्या यही तुम्हारा ग्राचरण
हैं? श्रावक, गृहस्थ और श्राविकाएं इस प्रकार मिप्ठान
आहार के लिये तुम्हें ललचादें और तुम उन्हीं के यहाँ आहार
ग्रहण करने जाओ, क्या यह अनुचित नहीं है ?
मुनियों के गुरु शरभमिन्दा होकर बोले, “महादेवी * आप
जो कुछ'कह् रही हैं वह सत्य है। साधुओं को मिष्ठान के
लिये नहीं ललचाना चाहिये । साधुघ्रोंको श्रावको के घर
ललचाकर आहार ग्रहण करने जाना हमारे आचार के विरुद्ध
है) पर इस नगर में प्रारम्भ से ही ऐसा रिवाज है । श्रावक
अत्यधिक गुरुभक्ति पूर्ण हैं, श्रतः वे मुनियों की सेवा करने में
ही श्रावक धर्म को सार्थकता मानते हैं। इससे हमारे मना
करने.पर भी वे राग-ग्रसित होने से हमारा कहना वहीं मानते
ओर अपने रिवाज-को नहीं छोड़ते ।
यद् सुनते दी दीश्लदेवी ने श्राष्तेष किय!---“मुनि ! पहं कया
कह रहे हो.? तुम्हारी इच्छा बिना क्या ऐसा हो सकता है ?
जवे तुम श्रावको को इच्छानुमार प्रवृत्ति करोगे तब तुम्हारे
मुनिपत की क्या महिमा ? श्रावकों में कितनी भो भक्ति क्यों
न हो, किन्तु यदि वह भक्ति ग्रुनि धर्म का उल्लंघन कराती
हो तो ऐसी भक्ति किस काम की ? ऐसी भक्तिसे तो भक्त
ओर भगवात् (साधु) दोनों दूषित होते हैं। .जों तुम्हारे नियमों
के अनुसार हो, जिससे तुम्हारा चारित्र धर्मं दूषित न होता हो
ओर जिससे आहत धर्म की निन्दा न होती हो, ऐसा शुद्ध
आचरण करना ही मुनि धर्म और मुनियों के आचरण का
शुद्ध स्वरूप है। मुनियों ! जरा हृदय में विचार करो,
तुम्हारी यह प्रवृति मु जरा भी योग्य वहों लगतो । तुम्हारा
नह झनाचार में इस बार माफ करती हूं, पर यदि फिर ऐसा ही
हेरा तो में अपने स्वरूप को वापस खींच लूगी[” `
वृद्ध. सुनिपति हाथ जोड़कर बोले, “देवी ! क्षमा -करो,
मव दूसरी बार हम ऐसा अनाचार नहीं करेंगे । हम इसं नगर
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