विकास | Vikaas
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
139
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)५ विकासं
1
निवारण करने का प्रयत्न करना पड़ता हे । (प्रथ्वी का
मुख चूमते हुए ) प्राणेश्वरी, अत्यन्त बुद्धिमती होने के
कारण तुम इला कहलाती हो, किन्तु, इतने पर भी तुम्हारे
इस मूखतापूण भ्रम का क्या कारण है, जानती हो ?
प्रथ्वी--( आकाश का दृढ़ालिज्ञननकर ) क्या, तारापथ 1
आकाश--तुम्हारा खय॑ चक्रवत घूमना। तुम्हारे स्वयं के घूमने
के कारण तुम्हें सारी सृष्टि उसी प्रकार घूमती हुईं दिखायी
पड़ती है । इस भ्रम में अचल हो जाने के कारण, आठों
पहर चोंसठों घड़ी चलित रहने पर भी तुम अचला कहलाती
हो /तुम्हारे बन्धु गणों का यह भ्रम भी उनके स्वयं के
घूमने के कारण ही है।
प्रथ्वी--तुम्हारे इस तक का तो यह उत्तर हो सकता है, अन्त-
रिक्ष, कि तुम स्वयं उन्नत, अत्यन्त उन्नत हो, अतः तुम्हें यही
भ्रम रहता है कि सारी सृष्टि उन्नति की ओर ही अग्रसर
हे ।
आकाश--( आश्चय से ) भ्रम ! और मुभ अनन्त को! बात
यह है, हृदये श्वरी, कि तुम्हें ओर तुम्हारे बन्धुगणों को केवल
अपनी सृष्टि का ही ज्ञान है, किन्तु मेरा सम्पक तो सभी
से है । तुम और बे प्रथक-प्रथक् रूप से नहीं जानते कि
सभी ओर उन्नति की कैसी धूम मची हुई है।
प्रथ्वी--मुमे चाहे अपने अतिरिक्त और किसी का ज्ञान न हो, किन्तु
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